भारतीय धर्म एवं सभ्यता

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इतिहास गवाह है कि भारतीय समाज, संस्कृति के सम्पर्क में आने के पूर्व उतना ही जंगली, बर्बर तथा असामाजिक था, जितने की अन्य समाज । हमारे संस्कार ने हमें बर्बरता से दूर किया तथा हमें मानव समाज बनाने योग्य बनाया। वेदों की रचना अनुमानतः 2500 से 5000 वर्ष के पूर्व तक हो चुकी थी। इसका तात्पर्य यह है कि जिस समय अधिकांश विश्व का मानव बर्बरता से अस्तित्व गुम हो गया। सभ्यता का लक्ष्य था मानव की मुक्ति व स्वतंत्रता जो सघन तिमिर में भ्रमण कर पाशविक जीवन व्यतीत कर रहा था, उस समय हर उसे न मिल भारतीय सुसंस्कृत हो चुका था।

धर्म की अवधारणा भारतीय समाज की व्यवस्था की अधारशिलाओं में मुख्य है। इसकी समाप्ति या प्रभाव के कम होने पर हमारा ‘स्वरूप’ या तो बिखर जायेगा या तो पररूप धारण कर लेगा। धर्म का सामान्य अर्थ मज़हब से लगाया जाता है । किन्तु भारतीय संस्कृति में धर्म शब्द का प्रयोग प्रकृति, कर्तव्य एवं नैतिकता के रूप में किया गया है । यहां युद्ध जैसे विनाशक कार्य को भी नीतिपूर्ण तरीके से करना सिखाया जाता है।

-डॉ अजय सिंह एम फिल, पीएच-डी, इतिहास  

ब्रिटिश साम्राज्य के फलस्वरूप भारत पश्चिमीकरण एवं आधुनिकीकरण के सम्पर्क में आया जिसने हमें पश्चिमी विचार, कला, साहित्य एवं प्रौद्योगिकी से जोड़ा। विकास की होड में सभी देश आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को प्राथमिकता देने लगे । ल्योटार्ड का कहना है कि ज्ञानोदय, तर्कणा, बुद्धिवाद एवं स्वतंत्रता का परिणाम है आधुनिकता। इस आधुनिकता ने भौतिक परिवर्तन को प्रोत्साहित किया, अतः समाज में धन का महत्व बढ़ता चला गया|

प्रत्येक देश अपने को आधुनिक और सभ्य बनाने के प्रयत्न में नित नये सुविधा के उपकरणों के साथ अस्त्र-शस्त्र का निर्माण भी करने लगे जिसका प्रयोग दंगों व आतंकवाद को बढ़ाने के लिए किये जाने लगा। सभ्यता से उत्पन्न आधुनिक मशीनों व उच्च तकनीकी के जाल में मनुष्य कासका । उसे मिला क्यों ? मौत, भय, यातना एवं अस्तित्व की संकट।

गाँधीजी की कहना है कि हमें यह सोचना है कि किस परिस्थिति को सभ्यता कहा जाता है। इस सभ्यता की सच्ची पहचान तो यह है कि इसे स्वीकार करने वाले लोग भौतिक खोजों और शारीरिक सुखों को सार्थकता एवं पुरूषार्थ मानते हैं । मानव को हाथ-पैर हिलाने की जरूरत नहीं रहेगी। बटन दबाने पर जरूरत की प्रत्येक वस्तु मिल जायेगी। पहले जब लोग लड़ना चाहते थे, तब एक दूसरे का शरीर बल आजमाते थे। अब तो वे तोप के गोले से हजार जान ले सकते हैं। यह सभ्यता की ही निशानी है।

पहले लोग खुली हवा में स्वतंत्रता पूर्वक उतना ही काम करते थे, जितना उन्हें ठीक लगता था। आज हजारों मजदूर अपने गुजर-बसर हेतु बड़े-बड़े कारखानों या खदानों में काम करते हैं। उनकी दशा जानवरों से भी बदतर हो गई है और उनके श्रम का मूल्य भी मिल मालिकों तक रह जाता है। पहले लोग मार-मार कर गुलाम बनाये जाते थे, आज पैसों और सुख सुख का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सभ्यता में नीति या धर्म की बात है ही नहीं । उसे तो बस इतनी चिन्ता है कि शारीरिक सुख कैसे मिले ।

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यदि हम धैर्यपूर्वक सोंचें  तो समझ में आ जायेगा कि यह ऐसी सभ्यता है कि इसकी लपेट में पड़े हुए लोग अपनी ही सुलगाई अग्नि में जल मरेंगे। अमेरिका में हो रहे आतंकी हमले तथा रूस का क्रांति का बिखराव इसका सशक्त उदाहरण है ।

गांधी जी कहते हैं कि हमारा देश प्राचीनतम धर्मों की जन्मभूमि है। उसे आधुनिक सभ्यता से बहुत कम सीखना है क्योंकि उसका आधार जघन्यतम हिंसा है, जो मानव के समस्त दिव्य गुणों के विपरीत है। यह सभ्यता आत्म विनाश के पथ पर आँख मूँद कर दौड़ रही है। शिक्षा वह ज्ञान के स्थान पर धन, प्रतिष्ठा का सूचक बनता है जा रहा है। जिसके प्रभाव से प्रत्येक के मन में कम से कम समय में अधिक से अधिक प्राप्त करने की इच्छा बढ़ती जा रही है। ऐसे में रास्ता कोई भी हो इससे फर्क नही पड़ता।

असीमित इच्छाएं मानव को अपराध के रास्ते पर ले जा रही है। क्या समस्या बन चुकी है। भ्रूण-हत्या, साइबर अपराध स्वसन अपराध भी सभ्यता के ही परिणाम है। सभ्य होने का लिए खान-पान, पेश-भूषा, कला-साहित्य में मिलावट तो एक सामान्य बात है । ऐसे में धर्म व उसके अन्य कार्य जैसे कर्तव्यबोध व नैतिकता अपने वजूद खोते जा रहे हैं । धर्म के सामान्य मजहब की अपने स्वार्थ अनुसार लोग प्रयोग में लाने लगे हैं। जैसे समाज की एकता को समाप्त करन के लिए, व्यक्ति से व्यक्ति, भाई को भाई से लड़वाने तथा मानवता को खत्म करने के लिए।

ऐसी स्थिति में स्पेंगलर का चक्रीय सिद्धांत याद आने लगता है क्योंकि धर्म के घटते प्रभाव एवं मानव के सभ्य बनने की लालसा ने उसे फिर से बर्बर युग में प्रवेश करने पर बाध्य कर दिया है। हम आज वैश्विक ग्राम’ की बात तो करते हैं. पर ग्राम की विशेषता को भूलकर। हमें सभ्य समाज का पूर्ण विरोध नहीं करना है और न हम आधुनिकता से मुंह मोड़ सकते हैं, परन्तु भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि भारत में सभ्यता के विकास के साथ-साथ यहां के मूल्यों का विकास करे | अपने अधिकारों की मांग के साथ-साथ अपने कर्तव्यों के प्रति भी जागरुक  रहें।

शिक्षा व तर्क तो ज्ञान को बढ़ाता है, परन्तु आधुनिक शिक्षा एक ओर तो रूत्री की प्रतिष्ठा दिलाने में लगी है, तो दूसरी ओर माँ को वृद्धा आश्रम भेज रही है। एक तरफ शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा है तो दूसरी तरफ गुरू के सीने पर चढ़कर शिष्य उसकी जान ले रहा है। यह बर्बर युग की निशानी है या सभ्यता की ? प्रश्न तो यह है कि हमारा परिचय ऐसी सभ्यता से कराने वाले पश्चिमी देश आज स्वयं संस्कृति, धर्म व शांति की खोज में भटक रहे हैं। वे चांद पर तो सरलता से जा सकते हैं परन्तु अपने लोगों के दिल से दूर होते जा रहे हैं।

गांधी जी का कहना है कि अब हम हृदय और बुद्धिवाले, बुद्धि सम्पन्न मनुष्यों का काम है कि हम देखें कि हमें क्या करना है? हमें सभ्यता का उपयोग। करना है, किन्तु आँख मूद कर नही, वरन् बुद्धि और चतुराई के साथ। दो अंग्रेज जितन्र एक नहीं हैं, हम भारतीय उतने एक थे, और हैं|

भारत ने ऐसी सभ्यता  विकसित की जिसके द्वारा मानव अपना फर्ज अदा कर सकता है। फर्ज अदा करने का तात्पर्य है नीति का पालन करना। नीति का पालन तभी हो सकता है जब हम अपने मन व इन्द्रियों को वश में कर लें। धर्म के बिना इन्द्रिय संयम संभव नही है । इस प्रकार का आचरण करते हुए हम अपने आप को पहचानते हैं। वास्तव में यही सभ्यता है और इसके विरूद्ध जो भी वह असभ्यता है।

 

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