लोहिया के लिए राजनीति खुला आसमान था

23 मार्च 1910 राममनोहर लोहिया जी का जन्म दिवस

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राजनीति लोहिया के लिए खुला आसमान था। मूर्धन्य चिंतक होने के अतिरिक्त लोहिया मृत्युपर्यन्त असाधारण कर्मठता के साथ अपने आदर्शों को साकार करने की दिषा में सतत क्रियाशील ही रहे। स्वतंत्र भारत में उनसे बड़ा सैनिक ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा। अंततः स्वाधीन भारत की संघर्षधर्मी चेतना के सबसे बड़े जानदार प्रवक्ता के रूप में इतिहास ने उन्हें स्वीकारा भी।

-कनक तिवारी

अतिमानव का विद्रोह

लोहिया के लिए राजनीति खुला आसमान था। मूर्धन्य चिंतक होने के अतिरिक्त लोहिया मृत्युपर्यन्त असाधारण कर्मठता के साथ अपने आदर्शों को साकार करने की दिषा में सतत क्रियाशील ही रहे। स्वतंत्र भारत में उनसे बड़ा सैनिक ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा। अंततः स्वाधीन भारत की संघर्षधर्मी चेतना के सबसे बड़े जानदार प्रवक्ता के रूप में इतिहास ने उन्हें स्वीकारा भी।

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संस्कृति एक व्यापक अभिव्यक्ति है। उसके दायरे में मानव जीवन की सभी गतिविधियां, घटनाएं और संभावनाएं तक समाहित होती हैं। राजनीति, धर्म, नैतिकता, साहित्य, कलाएं और सामाजिक जीवन की बहुविध छटाओं का समुच्चय, उत्कर्ष और समवेत स्थायी भाव संस्कृति की परिधि के बाहर नहीं होता। समाज के व्यावहारिक लक्षण युग-बोध पर निर्भर होते हैं। उसके उद्देश्य, चुनौतियां और वास्तविकताएं भी सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करती हैं।

संस्कृति का अक्स मनुष्य-व्यवहार के बाहरी अवयवों से बाधित नहीं होता। संस्कृति इसलिए एक तरह का अहसास है। संस्कृति सुगंधि की तरह महसूस की जाती है लेकिन उसे केवल भाषा या शब्दों में बांधना धुएं को मुट्ठी में पकड़ना जैसा होता है। संस्कृति एक साथ वैयश्विक, देशज और स्थानीय भी होती है। उसे रूढ़ परिभाषाओं में कैद नहीं किया जा सकता। वह एक साथ लाक्षणिक, तात्विक और अनुभवजन्य होती है।

संस्कृति की समझ में इतनी संलिष्टताएं होने के बावजूद वह लगभग अपढ़ और मामूली समझ के मनुष्यों के लिए भी अज्ञेय नहीं होती। हर व्यक्ति और नागरिक उससे साक्षात्कार, सहकार और सरोकार रख सकता है। संस्कृति के जुमले में किसी मानवीय घटना या व्यक्ति-चरित्र को बूझने के प्रयत्न में विषय वस्तु का रेखांकन शब्दों में करना भले ही कठिन हो, लेकिन उसे अन्यथा भी बेहतर समझा जा सकता है।

भारतीय जीवन की बीसवीं शताब्दी उसके इतिहास की सबसे ज्यादा घटना प्रधान रही है। इस सदी में उन्नीसवीं सदी का भारतीय नवोदय या नवजागरण काल परवान चढ़ा। इसी सदी ने अंततः एक स्वाधीन भारत को जन्मते देखा। इसी सदी में देश ने पहली बार सामूहिक लेखन के जरिए अपना संविधान रचा और देश को अनेक नए बौद्धिक आयामों से सींचा। संसद, योजना आयोग, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, चुनाव, आणविक ऊर्जा, विदेश नीति, औद्योगीकरण वगैरह के रास्तों पर चलकर भारत वैश्वीकरण के युग में आ पहुंचा या लाया गया। बीसवीं सदी ने ही महान जननायकों से सहकार किया।

 

विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, मोहम्मद अली जिन्ना, मौलाना आजाद, जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, सरोजिनी नायडू, भगतसिंह और डाॅ. राममनोहर लोहिया जैसे अनेक जननायक बीसवीं सदी में भारत का इतिहास समृद्ध करने की अपनी कोशिशें करते रहे।

विवेकानंद और लोहिया ने मौजूदा दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका से सीधा साक्षात्कार करने की कोशिश की और अपने सवालों का खुद ही उत्तर ढूंढ़ा। लोहिया ने अमेरिका जैसे शक्तिशाली लेकिन प्रजातांत्रिक देश से कई उम्मीदें बांध रखी थीं जो गहरी निराशा में तब्दील हुईं।

राममनोहर लोहिया ने क्रांतिकारियों जैसा जीवन जिया, लेकिन अकाल मौत पाई। सत्तावन वर्षों का उनका अपेक्षाकृत छोटा जीवन नये भारत के विद्रोही इतिहास का दहकता दस्तावेज है। गांधी का चिंतन और अपनी मौलिकता लिए लोहिया ने स्वातंत्र्योत्तर भारत की नई पीढ़ी में विद्रोह की सांस फूंकी थी। वह शोषितों के पैगंबर, अन्यायी अधिकारतंत्र के खंडक और गांधी के बाद भारत के मामूली, गरीब आदमी के प्रतीक थे। वह एक निष्णात विद्वान, निस्वार्थ देशभक्त और मुक्त मानव के मसीहा थे। वह देश के लगभग सबसे बड़े मौलिक राजनीतिक विचारक थे।

लोहिया अंतरराष्ट्रीय समस्याओं की व्यापकता से लेकर सांख्यिकी की सूक्ष्मतम जानकारियों से लैस होकर राजनीतिक मंच पर उतरे थे। उनकी अनुपस्थिति में राजनीतिक चिंतन निस्तेज और समाजवादी आंदोलन स्पंदनहीन सा हो गया था। स्वातंत्र्योत्तर भारत में अपने ही राष्ट्रीय परिवेश में मामूली आदमी के अजनबीपन को खत्म करने और उसकी आत्मा के तादात्म्य की स्थापना की जोरदार कोशिश ने लोहिया को राजनीति में अपने हाथों नई राहें तोड़ने के लिए मजबूर किया। उनका जीवन गूढ़ राजनयिक मसलों को भी साधारण आदमी की प्रतिक्रिया के दायरे में डाल देने के सचेतन प्रयास का अर्थ था।

राजनीति लोहिया के लिए खुला आसमान था। मूर्धन्य चिंतक होने के अतिरिक्त लोहिया मृत्युपर्यन्त असाधारण कर्मठता के साथ अपने आदर्शों को साकार करने की दिषा में सतत क्रियाशील ही रहे। स्वतंत्र भारत में उनसे बड़ा सैनिक ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा। अंततः स्वाधीन भारत की संघर्षधर्मी चेतना के सबसे बड़े जानदार प्रवक्ता के रूप में इतिहास ने उन्हें स्वीकारा भी।

लोहिया बहुआयामी व्यक्ति थे। यह कहना ज्यादा सही होगा कि हर व्यक्ति बहुआयामी ही होता है। उसके एक हिस्से पर प्रकाश डालने से वह उस व्यक्ति का सांकेतिक परिचय भर होता है, आकलन नहीं। राजनीति के सिरमौर तिलक, गांधी और नेहरू जैसे लोग और मौलाना आजाद भी अद्भुत बौद्धिक प्रतिभा के धनी थे। लोहिया जिस पगडंडी पर चलते थे, वह उनकी स्वतः की निर्मिति होती।

लोहिया के साथ दिक्कत यह है कि उन पर समकालीन इतिहास ने अपनी नजर ठीक से नहीं डाली। बौद्धिकों में उनका असाधारण प्रभाव था लेकिन इसके बावजूद अब तक उनके इंद्रधनुशी व्यक्तित्व का विस्तृत आलोचनात्मक अध्ययन उपलब्ध नहीं है। लोहिया को समझने की कोशिश करना कम से कम बीसवीं सदी के ताजा इतिहास और सर्वज्ञात भारतीय ऋषि परंपराओं सहित अधुनातन पश्चिमी विचार को खंगालने का साहसिक उपक्रम है।

राजनीति को लोहिया का अवदान महत्वपूर्ण होने पर भी भारत के लिए कई अर्थों में निर्णायक नहीं हो पाया। लोहिया के चिंतन में व्यावहारिक उपादेयता के साथ साथ यूटोपिया के अंश भी थे। वे इस जननेता को यथार्थ की धरती पर खड़ा हुआ देखने के बाद भी उसे स्वप्न महल निर्मित करना समझते थे। राजनीति ठर्र किस्म की मानवीय प्रक्रिया समाज में समझी जाती है। उसका मकसद सत्ता की कुर्सी पर बैठकर ऐंठना, इतराना और अजीर्ण होने तक लूट खसोट करना है। उत्तर-गांधी युग में लगातार यही हुआ है।

भारतीय जनजीवन के कई बड़े हस्ताक्षर इसलिए इस भूल भुलैया में आज भी फंसे हुए हैं। कोल्हू के इन बैलों को लगता है कि वे लक्ष्य की ओर चल रहे हैं। जबकि वे उसी जगह घूमते हुए जिन्सों से तेल उद्योगपतियों के लिए पेर रहे हैं। जिन्सों से बची हुई खली, भूसी, चूनी और चारा वगैरह आंख पर पट्टी बांधकर खा रहे हैं। जनता इन नेताओं को यह सब करने से रोक भी नहीं पाती क्योंकि वह तो चुनावों के बाद नए नेताओं को चुन लेने को ही लोकतंत्र का पर्याय मानती है। इन तथाकथित जननेताओं में भद्र सामंती आचरण से लेकर बाजारू प्रवृत्तियां भी दिखाई पड़ती हैं। उनमें उस मानवीय, शैक्षिक, कलात्मक, सांस्कृतिक लक्षण का अभाव होता है जिसके कारण ही कोई देश अपने पाथेय तक पहुंचने की कोशिश करता है।

लोहिया इन्सानी दुनिया के अद्भुत चिंतक थे। राजनीति उनके लिए संयोग, मजबूरी या बाद में प्रतिबद्धता हो गई थी। अपने सभी संभावित आयामों में किसी के हस्तक्षेप के बिना जी लेना ही तो जीवन जीना होता है। लोहिया इसलिए अपने एक निबंध के शीर्षक की तरह मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व लिए जीते रहे। उन्हें जीवन ने अपनी मर्यादा से रचा था, लेकिन जीवन ने ही उनमें उन्मुक्ति की चाह पैदा की और उन्हें असीमित बनाया।

धर्म को इस देश का प्राण बताने वाले साधु संत प्रयाग के कुंभ में लोगों को अपने प्रवचनों की घुट्टियां पिलाकर पुनर्जन्म और पाप पुण्य के चोचलों में उलझा रहे थे। तब उन्हें स्तब्ध करते हुए लोहिया ने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था कि धार्मिक समागम को चाहिए कि वह गंगा और यमुना सहित भारत की नदियों को साफ करे। इससे बड़ा और कोई धर्म नहीं हो सकता। उन्होंने बताया कि देश का औद्योगिक कचरा, कारखानों और अस्पतालों तक का प्रदूषित जल नदियों में ज़हर की तरह घुल रहा है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास की कोशिकाएं बनीं ये नदियां मृत्यु के उपरांत भले ही वैतरणी बनकर मोक्ष दिला दें। फिलहाल तो ये खुद ही लाचारी के नाबदानों की तरह हैं। यह आश्चर्य है कि धार्मिक संतों के जमावड़े के अतिरिक्त भारत के राजनीतिक गलियारों में भी इस राष्ट्रीय कर्तव्य की कौंध नहीं थी।

यह महत्वपूर्ण है कि भारतीय संसद तक को इस संबंध में वह कर्तव्य-बोध नहीं था जो लोहिया के गतिशील सामाजिक मानस में समा गया था और जिसकी भित्ति पर लोहिया ने धर्म के आडंबरों, चोचलों और पारंपरिक कुंभ की प्रकृति के महत्वपूर्ण सम्मेलन को अपने अग्रगामी सोच के जरिए संबोधित किया था।

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ऐसा लगता है कि अपनी सामाजिक और वैधानिक जिम्मेदारियों को बूझने के बाद संसद ने अंततः जल प्रदूषण अधिनियम, 1974 में वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम, 1981 में और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 में अधिनियमित किया। इस तरह लोहिया ने धर्म और संस्कृति के गहरे सामासिक संबंधों की उदात्तता से महत्वपूर्ण संवैधानिक कर्तव्यबोध निर्मित किया। यदि वे जीवित रहते तो पर्यावरण संरक्षण को लेकर उनकी ओर से अंतर्राष्ट्रीय सोच के कई नए मानक झरने की तरह इतिहास को बहते दिखाई देते।

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कुटिल व्यंग्य से लोहिया को लेकर फतवे भी जारी किए गए कि कुआंरा रहने के कारण स्त्री को लेकर उनकी दृष्टि में खास तरह का यूरोपीय रोमांटिसिज़्म गहरा गया है। स्त्री और पुरुष के परंपरावादी बांझ रिश्ते को लेकर लोहिया में एक बेपरवाह लेकिन अनुसंधित्सु नस्ल का खुलापन था। लोहिया कहते जरूर थे वे रामायण के इलाके अर्थात अयोध्या के हैं लेकिन उनमें कृष्णकालीन दो नायिकाओं द्रौपदी और राधा को लेकर तर्क ही तर्क खदबदाते रहते थे।

लोहिया ने बेलाग होकर द्रौपदी को भारतीय नारी का आदर्श घोषित किया। वे स्त्री को अबला या पुरुष पर अवलंबित संपत्ति मात्र नहीं समझते थे। उनकी समझ थी स्त्री स्वायत्त है, परिपूर्ण है और उसमें क्षितिज तक पहुंचने की अपूर्व संभावनाएं हैं।

 तुम यौवन शुचिता की वकालत करते हुए भी लोहिया ने स्त्री को इस संबंध में पुरुष के बराबर अधिकार जैसा पारंपरिक जुमला ठीकरे की तरह नहीं फोड़ा। उन्होंने स्त्री को अपने अंततः तक पहुंचने के सभी आसमान अपने चिंतन में बुन दिए थे। उनकी स्त्री का आदर्श एक ऐसी सर्वसंभावना संपन्न औरत से था जो जरूरत पड़ने पर पुरुषों को मात देते हुए इतिहास तक का बोझ अपने सर पर उठा ले।

रंगभेद की दुनिया के सौंदर्यात्मक अत्याचारों से पीड़ित सांवली बल्कि काली स्त्री को लोहिया ने सम्मान देने का उद्देश्य बनाया। उन्होंने जोर देकर कहा कि गोरी स्त्रियों के मुकाबले सांवली स्त्री में स्त्रियोचित लावण्य, यौन शुचिता और स्नेह की अपूर्व संभावनाएं होती हैं। नृतत्व शास्त्र का कोई सिद्धांत बताए बिना लोहिया ने अपनी रागात्मक व्याख्याओं में ऐसा तर्कशास्त्र गूंथा था कि सौंदर्यशास्त्र की अवधारणाओं को उनका लोहा मानना पड़ा।

नारी अधिकारों को लेकर जो सार्वजनिक बहसें चलती रही हैं। उनसे कहीं आगे जाकर लोहिया ने सब कुछ तिलिस्म की तरह रच दिया। अब जिसकी पुनरावृत्ति भर हो रही है और वह भी ढीली ढाली, फीकी और लगभग बेमन से। इतिहास की शायद वह मजबूरी भी बन गई है। यह लोहिया थे जिन्होंने कहा था कि विश्व इतिहास में नारी अगर नर के बराबर हुई है तो केवल ब्रज में और वह भी केवल कान्हा के पास।

कृष्ण को केन्द्र में रखकर उनके सामने अपने संपूर्ण स्त्रीत्व को अनावृत्त करती द्रौपदी और राधा बिना अपराध बोध के यौन समीकरणों के परे हो गई थीं।

लोहिया ने कहा कि मनोवैज्ञानिक जिसे अवरुद्ध रसिकता के नाम से जानते हैं, वह ग्रंथि भी महाभारत की इन महान नायिकाओं में नहीं थी। इस तरह स्त्री पुरुष के संबंधों का कोई छोर या अंत नहीं होता। वह अनंत होता है।

नारी के प्रति लोहिया के मन में बहुत सम्मान की भावना थी। वह सामान्यतः संसार और विशेषकर भारत में नर-नारी की गैर बराबरी से बहुत चिंतित थे। उनकी यह निश्चित मान्यता थी कि नारी शारीरिक दृष्टि से नर से कमजोर होती है। इसलिए उसे विशेष सुविधाएं समाज में प्रदान की जानी चाहिए। वह भारतीय नारियों की पश्चिमी वेषभूषा और तौर तरीके के प्रति झुकाव से अप्रसन्न भी थे।

लोहिया की स्पष्ट राय थी समाज के सम्यक उत्थान के लिये नारी को संगठनात्मक, शैक्षणिक, प्रशासनिक पदों पर अधिक स्थान दिए जाएं। रंग भेद के भी कट्टर विरोधी थे। उन्होंने इस समस्या पर आर्थिक, राजकीय, श्रृंगार शास्त्र तथा सौन्दर्य शास्त्र की दृष्टि से विचार किया था। लोहिया को इस बात पर गहरी आपत्ति थी कि गोरी जाति को अनावश्यक रूप से सुन्दर तथा श्रेष्ठ मान लिया गया है। उनका सीधा तर्क है कि विराट सभ्यताओं वाले देश मिश्र और भारत आखिर सांवली जातियों के ही हैं।

उन्होंने कवियों और चित्रकारों के उदाहरण देकर भी यह सिद्ध किया कि विशुद्ध कलात्मक स्तर पर जातिगत सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। आर्थिक गैरबराबरी के खिलाफ लोहिया ने अकेले जितना युद्ध किया है, उतना बहुत सी संस्थाएं नहीं कर सकीं। उन्होंने इस गैरबराबरी की केवल आलोचना ही नहीं की, बल्कि उसके समाधान के लिए एक रचनात्मक समाजवादी आर्थिक सिद्धांत भी प्रतिपादित किया। जाति प्रथा के लोहिया जानी दुश्मन थे। अपने भाषणों, लेखों और चिंतन में लोहिया इस समस्या के प्रति सर्वाधिक सजग थे। उन्होंने धर्म, इतिहास, संस्कृति, अर्थ, राजनीति सभी कसौटियों पर कसकर जाति प्रथा को एक खोखली, जंगली और वहशी प्रथा घोषित किया।

लोहिया की भाषा बेहद उर्वर, भविष्यमूलक, स्वप्नशील लेकिन आमजन की चेतना से जुड़ी रही है। उन्होंने पौराणिक मिथकों, किवदंतियों, अफवाहों और आख्यानों का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया है। उससे लेकिन सामाजिक यथार्थ के नए सिद्धांत मौलिक रूप से गढ़े हैं। कृष्ण का विवेचन उन्होंने मनोवैज्ञानिक शब्दावली में किया है। उसके सामने शास्त्रीय टीकाएं बौनी और मौन जान पड़ती हैं। लोहिया का तर्क था कि कृष्ण की सभी चीजें दो हैं। दो मां। दो बाप। दो बल्कि बहुत ज्यादा प्रेमिकाएं। दो नगर आदि।

कृष्ण के जीवन में पराई अपनी से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है। फिर अपनी भाषा की रोशन फुलझड़ी जलाते हुए लोहिया कहते हैं कि पराई का अपने से बढ़ जाना ही तो कृष्ण हो जाना है। उनके निजी विवेकशास्त्र की इतनी बानगियां हैं कि लोहिया होते शायद हमारी समझ के भंडार को लगातार विकसित करते रहे।

राम, कृष्ण और शिव जैसे पौराणिक चरित्रों की निजता और पारस्परिकता से उद्भूत युग-सत्यों का उद्घाटन करना कोई लोहिया से सीखे। त्रेता और द्वापर की संलिष्ट राजनीतिक परिस्थितियों, कूटनीति की पेचीदगियों और तत्कालीन नैतिकशास्त्र के आदर्शों और आडंबरों के विरोधाभास को समझने के वातायन बने ये त्रिदेव भारत का सांस्कृतिक इतिहास दिखाते हैं। उसकी भूमिका उन्हें और किसी ने क्यों नहीं सौंपी।

हिन्दू, मुसलमान, अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जद्दोजहद को रामायणकालीन मिथकों के इस्तेमाल के जरिए साधारणजन के हलक में उतार देना लोहिया के लिए शायद इसलिए जरूरी था कि समाजशास्त्र की ठर्र भाषा में व्युत्पन्न की गई यूरोपीय अवधारणाएं भारत में अंतरित भले हो गई थीं उनका कोई गुण ग्राहक सामान्य जन में ढूंढ़ना एक ऐसा प्रयत्न था जिसकी असफलता से लोहिया परिचित हो गए थे।

लोहिया में जबरदस्त इतिहास बोध था। अपनी मृत्यु के पूर्व अर्ध निद्रा में भी लोहिया ‘राजा ने रानी को मारा‘ और रज़िया बेगम जैसे शब्द बुदबुदा रहे थे। उनके कुटिल आलोचकों ने इंदिरा गांधी को लेकर उसके तत्कालीन स्थानीय संदर्भ भी ढूंढ़े। लोहिया के जेहन में भारतीय इतिहास के गणितीय सवाल तैरते उतराते थे। उन्हें तार्किकता के जरिए हल करने के बदले फार्मूलाबद्ध घुट्टियों मेें पिलाया जाता रहा है।

आधुनिक ही नहीं प्राचीन इतिहास के शासनतंत्र और उसमें जनता की भूमिका को लेकर लोहिया ने ढेरों नए सवाल पहली बार खड़े किए थे। उन्हें वक्त नहीं मिला कि वे इतिहास पर पड़ी सलवटों पर अपने तर्क की इस्तरी करते। इतिहास के कपड़े की गंदगी को धो पोंछकर साफ करने के बहुत से जतन लेकिन लोहिया के पास थे। ऐतिहासिक चरित्रों अशोक और अकबर वगैरह की मानद और असरदार स्थिति पारंपरिक इतिहासकारों ने बना दी है। उसको भी लोहिया अपने अभूतपूर्व सांस्कृतिक मानस में कबीर, तुलसीदास, चैतन्य, मीराबाई, नानक और गालिब वगैरह के मुकाबले संवेदन के अभाव में फीका चित्रित करते हैं।

इतिहास और संस्कृति को टुकड़ों, कालखंड या विभक्ति में देखना लोहिया की दृष्टि नहीं रही है। उनके अंदर अबूझ, अदृश्य, अगम्य संस्कृति सरिता बहती रही है जिसकी आर्द्रता लोहिया के पूरे चिंतन में है। उस वक्त भी जब वे राजनीति के प्रत्यक्ष कठोर दीखते सवालों से उलझते हुए सूखे बौद्धिक हमले कर रहे हों। वस्तुतः गांधी के अतिरिक्त भारतीय जन मानस के बड़े नेताओं में लोहिया ने आम आदमी को केन्द्र में रखकर सांस्कृतिक चिंतन किया था। वह पूरे भारतीय वांगमय को एक तरह से नए सिरे से देखने की कोशिश थी।

नवजागरण काल के ऋषियों राममोहन राय, महर्षि दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, अरविंद, केशवचंद्र सेन, तिलक वगैरह के अवदानों को अच्छी तरह आकलित करते हुए लोहिया एक सरल, सर्वसुलभ और आत्मीय संस्कृति दृष्टि विकसित करते हैं। वह भारतीय इतिहास में इतने संकेत सूत्र बिखराती है कि उसे समेटना धुएं को अपनी मुट्ठियों में भींचना है।

(गाँधीवादी विचारक-लेखक, छत्तीसगढ़ के पूर्व महाधिवक्ता कनक तिवारी का  चार किश्तों का लेख ,फेसबुक पर पोस्ट पहला और दूसरा भाग, साभार ) 

 

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