निकाय चुनाव : स्थानीय मुद्दे, स्थानीय छवि एवं स्थानीयता अब भाजपा के लिए भारी

स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजों से एक बात साफ है कि राज्य में स्थानीय मुद्दे, स्थानीय छवि एवं स्थानीयता अब भाजपा के लिए बहुत भारी पड़ने लगी है।

 

स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजों से एक बात साफ है कि राज्य में स्थानीय मुद्दे, स्थानीय छवि एवं स्थानीयता अब भाजपा के लिए बहुत भारी पड़ने लगी है। अब मंथन भाजपा को करना है कि आगामी चुनावों में किस तरह की रणनीति के साथ उतरना है ?

-डॉ. लखन चौधरी

 

शहरी स्थानीय निकाय चुनावों के परिणाम छत्तीसगढ़ सरकार की तीन साल की नीतियों, योजनाओं एवं कार्यक्रमों पर एक तरह से मोहर लगाने जैसा है। चार नगरपालिक निगम सहित 15 स्थानीय निकायों में से 14 पर कांग्रेस का कब्जा बताता है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार की दिशा  एवं दशा सही है, यानि राज्य में कांग्रेस सही रास्ते में आगे बढ़ रही है।

महत्वपूर्णं बात यह है कि कि इन स्थानीय निकाय चुनावों में सरकार के तीन साल के कार्यकाल की एंटी-इन्कमबेंसी छवि या एंटी-इन्कमबेंसी फेक्टर गायब है। कांग्रेस के लिए यह बड़ी राहत की बात इसलिए है, क्योंकि पिछले चार-छह महिनों से भाजपा इसे जोरशोर से उठा रही है।

2018 के विधानसभा चुनावों की तरह स्थानीय निकाय चुनाव परिणाम में कांग्रेस के प्रति जनता का प्रचण्ड विश्वास  बताता है कि राज्य की जनता सरकार के कामकाज से खुश  एवं संतुष्ट है। सरकार की छत्तीसगढ़िया छवि सरकार का जनमत बढ़ाने में लगातार मददगार साबित हो रही है।

खेतिहर समाज एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर फोकस करती सरकार की नीतियां, स्थानीय योजनाएं एवं स्थानीय कार्यक्रम जनता का विश्वास हासिल करने में सफल हो रही हैं। चूंकि राज्य की तीन चौथाई से अधिक जनसंख्या आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, तथा शहरों में रहने तीन चौथाई से अधिक के परिवार गांवों में रहते हैं, लिहाजा सरकार की खेतिहर समाज एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर फोकस करती नीतियां, योजनाएं एवं कार्यक्रम सरकार के लिए फायदेमंद साबित हो रहे हैं।

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का छत्तीसगढ़ी संस्कृति का झंडाबरदार होना सरकार के लिए लगातार लाभकारी सिद्ध हो रहा है। यही कारण है कि शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में भी सरकार के कामकाज पर मोहर लग रहे हैं। भाजपा को 15 में से केवल एक निकाय में जीत मिली, वहीं पार्षदों की संख्या देखा जाये तो कांग्रेस के आधे के बराबर भी भाजपा को जीत नहीं मिल पाई है।

इसलिए मीडिया में बातें आ रही हैं कि चुनावी जीत-हार का मामला केवल सरकार के  प्रदर्शन या विश्वास का ही नहीं है, बल्कि भाजपा के इस हार के पीछे पार्टी के संगठित प्रयास की कमी भी है।

2018 के विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद भाजपा अभी तक या तो उस हार से उबर नहीं पा रही है या एकजुटता बना पाने में अभी तक सफल नहीं हो पाई है।

विधानसभा के दो उपचुनाव के बाद नगरीय निकाय चुनावों में कांग्रेस या सरकार की सफलता देखकर अब तो मीडिया ने कयास लगाना आरंभ कर दिया है कि 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की राह आसान एवं साफ नजर आ रही है। इसकी वजह यह है कि 2018 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 90 में से 68 सीटें जीती थीं, जिसमें जीत का प्रतिशत 76 था।

इन निकाय चुनावों में कांग्रेस की जीत का प्रतिषत 80 बैठता है। यानि 2023 के विधानसभा चुनाव के लिए अनुमान लगाना आसान है।

पहले गांवों तक फिर शहरों में कांग्रेस का लगातार बढ़ता प्रभाव न केवल कांग्रेस के तीन साल के कार्यकाल की उपलब्धियों पर मोहर लगाता है, बल्कि सरकार के एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर को भी नकारता है, और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की परेशानियां भी बढ़ाता है।

भाजपा नगरीय निकाय चुनावों में सत्ता का दुरुपयोग, ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से चुनाव एवं प्रशासन के स्तर पर गड़बड़ियां जैसे मसले को जितना भी उठाये हालात भाजपा के पक्ष से लगातार बाहर होते जा रहे हैं।

भाजपा को अब अपने संगठन की एकजुटता पर फोकस करन  होगा , तभी अगले चुनावों में कांग्रेस को टक्कर दे सकेगी। उम्मीदवारों के चयन में बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है, क्योंकि इस बार भाजपा के निर्दलीयों ने कांग्रेस की तुलना में भाजपा का खेल अधिक बिगाड़ा है।

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मीडिया के हवालों से यह निष्कर्ष आ रहे हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार कर्ज माफी, किसान न्याय योजना, बिजली बिल आधा करना, महिला स्वसहायता समूहों का कर्ज माफ करना, मोर जमीन-मोर मकान योजना के जरिए पट्टे देना, जमीन-प्रापर्टी की कीमत में 30 फीसदी की कमी करना जैसी योजनाएं कांग्रेस के लिए लगातार फायदेमंद साबित हो रही हैं।

अब तो मीडिया सवाल खड़ा करने लगा है कि क्या भाजपा अब तक छत्तीसगढ़ में संभल नहीं पाई है ? या संभल नहीं पा रही है ? अब मंथन भाजपा को करना है कि आगामी चुनावों में किस तरह की रणनीति के साथ उतरना है ? लेकिन इन स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजों से एक बात साफ है कि राज्य में स्थानीय मुद्दे, स्थानीय छवि एवं स्थानीयता अब भाजपा के लिए बहुत भारी पड़ने लगी है।

(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)

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