बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने हाल ही में फैसला सुनाया कि कोई बेटा और बहू वरिष्ठ नागरिक माता-पिता को उनकी इच्छा के खिलाफ अपने घर में रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकते.
न्यायमूर्ति प्रफुल्ला एस. खूबलकर की अध्यक्षता वाली पीठ ने स्पष्ट किया कि बेटे और बहू का माता-पिता के स्वामित्व वाले घर में रहने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, खासकर जब उनके बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए हों. कोर्ट ने 18 जून को दिए अपने आदेश में कहा, “बेटा और बहू माता-पिता को उनकी संपत्ति में रहने की अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं कर सकते. बहू के दावे का कोई कानूनी आधार नहीं है, जबकि याचिकाकर्ता माता-पिता 2007 के वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के तहत बेदखली की मांग कर सकते हैं.”
मामला नंदुरबार के एक वरिष्ठ दंपति से जुड़ा है, जिन्होंने अपने बेटे और बहू को शादी के बाद अपनी संपत्ति में रहने की अनुमति दी थी. संबंध बिगड़ने के बाद दंपति ने 2019 में वरिष्ठ नागरिक ट्रिब्यूनल में बेदखली की मांग की. ट्रिब्यूनल ने 18 फरवरी 2019 को बेटे और बहू को 30 दिनों में घर खाली करने का आदेश दिया.
हालांकि, बहू ने सीनियर सिटीजन अपीलीय ट्रिब्यूनल में इस आदेश को चुनौती दी, यह दावा करते हुए कि तलाक की कार्यवाही लंबित होने के कारण वह “वैवाहिक घर” में रहने की हकदार है. अपीलीय ट्रिब्यूनल ने 7 अगस्त 2020 को बेदखली आदेश को रद्द कर दिया और माता-पिता को सिविल कोर्ट में जाने को कहा.
वरिष्ठ दंपति ने इसके खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की. उनके वकील एनएस जैन ने तर्क दिया कि अपीलीय ट्रिब्यूनल का दृष्टिकोण वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के उद्देश्य को विफल करता है. कोर्ट ने पाया कि बहू ने अपने पति के खिलाफ तलाक और घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मामले दर्ज किए थे, साथ ही पति और सास-ससुर के खिलाफ धारा 498ए के तहत शिकायत भी की थी.
न्यायमूर्ति खूबलकर ने अपीलीय ट्रिब्यूनल के आदेश को खारिज करते हुए 2019 के बेदखली आदेश को बहाल किया. कोर्ट ने बेटे और बहू को 30 दिनों में संपत्ति खाली करने और 2019 से ₹20,000 प्रति माह के बकाया किराए का भुगतान करने का निर्देश दिया.
यह फैसला वरिष्ठ नागरिकों के संपत्ति और शांति के अधिकारों को मजबूत करता है. यह मामला उन जटिलताओं को भी उजागर करता है, जहां वरिष्ठ नागरिक अधिनियम और घरेलू हिंसा अधिनियम के बीच टकराव हो सकता है, जिसके लिए सावधानीपूर्वक कानूनी संतुलन की आवश्यकता है.