विद्याचरण शुक्ल ने कहा था , मैंने सब कुछ अपने मन से किया

आपातकाल में भारतीय प्रेस ने उनसे बेसाख्ता नफरत की, परहेज किया और उन्हें हिटलर के बड़बोले प्रमचार मंत्री गोयबल्स तक की उपाधि से विभूषित किया। यह वही दौर था जिसकी राजनीतिक गलतखयाली के कारण इंदिरा गांधी और संजय गांधी को चुनावों में पूरी पार्टी समेत मुंह की खानी पड़ी थी। इसके बाद भी शाह कमीशन के सामने सबसे पहले विद्याचरण शुक्ल ने कहा था कि मैंने सब कुछ अपने मन से किया है, इंदिरा जी के कहने पर नहीं।

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विद्या भैया: अंतरंग यादें!
-कनक तिवारी
कोई कहे दूरदर्शन, हवाई अड्डा, आकाशवाणी, द्वुतगामी रेलगाडि़यों और तमाम उद्योग इकाइयों के छत्तीसगढ़ में उगाने का श्रेय मुख्यतः विद्या भैया को जाता है तो उसमें विवाद की गुंजाइश कहां है? एक जमाना था उनके दफ्तर से किसी भी अदना व्यक्ति का क्यों न हो पत्र बिना उत्तर दिये दाखिलदफ्तर नहीं होता था। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के मामलों में शुक्ल से परामर्श किये बिना सत्ता के गलियारों में आखिरी आवाज नहीं मानी जाती थी।
उन्हें मालूम रहा है कि इंदिरा जी के कान उनके खिलाफ लोगों ने गलत तरीके से भरे थे। उन्हें इस बात का अहसास था कि चुगलखोरी और कानाफूसी की कूटनीति के कुछ विशेषज्ञ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कानों में उनके प्रति नफरत का तेजाब उडेलते रहे हैं। वे जानते थे कि राजनीति के शुरुआती दौर में कुछ सरगना पंडित नेहरू तक से उनकी बेवजह शिकायतें कर चुके थे। शुक्ल ने राजनीति को एक गरिमा के स्तर से नीचे कभी नहीं गिराया।
लेखक संविधान मर्मज्ञ,गांधीवादी चिन्तक और छत्तीसगढ़ के पूर्व महाधिवक्ता हैं

मै मौर्या शेरेटन में अयूब सैयद की गवाही में उनसे हुए भारतीय राजनीति के बारे में लंबे शास्त्रार्थ को भी नहीं भूलूंगा जब उन्होंने मुझसे असहमत होकर अंततः राजीव गांधी को छोड़ा था। मुझे वह दिन भी याद है जब मेरे कहने पर तत्कालीन रक्षा उत्पादन मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने अपने सहयोगी इंद्रकुमार गुजराल और महाराष्ट्र के राज्यपाल नवाब अली यावर जंग की शानदार पार्टियां छोड़कर टाइम्स आफ इंडिया के संवाददाता स्वर्गीय सुदर्शन भाटिया के घर मक्के की रोटी और सरसों का साग इसीलिये खाना कबूल किया क्योंकि ये चीजें मैंने कभी खाई ही नहीं थीं।

1985 के विधानसभा चुनाव के दौरान टिकट वितरण में विद्याचरण शुक्ल को घाटा उठाना पड़ा। सारे उम्मीदवारों और नाउम्मीदवारों के दिल्ली से रुखसत होने के बाद दोपहर के भोजन के समय जब दिल्ली दरबार (राजीव गांधी के निवास) से किसी अरुण का फोन आया तब भी उन्होंने अपनी गैरसमझौतावादी भर्राई आवाज में यही पूछा कि कौन अरुण बात करेगा? अरुण सिंह या अरुण नेहरू?
वैसे तो मुझे कभी जाति विशेष में पैदा होने का अहसास नहीं हुआ, लेकिन उनकी मुद्रा से लगा था कि ऐसा आचरण ब्राह्मण ही कर सकते हैं। जब वह किसी व्यक्ति की अन्य मंत्रियों अधिकारियों वगैरह से सिफारिश करते हैं तो औरों से विपरीत उनकी आवाज में अहसान मानने के बदले आदेशात्मक समझाइश देने का रुख निहित होता है।
लोग विद्या भैया में सहज विश्वास करते हैं और इसलिए वे भी सहज विश्वास करने में विश्वास रखते हैं। मुझे लगता है कि भारतीय राजनीति के प्रमुख हस्ताक्षरों में विद्याचरण शुक्ल जितने विश्वासघातों के शिकार हुए होंगे उनका समानांतर ढूंढ़ना मुश्किल है। कुछ लोग तो राजनीति में पद हथियाने के लिए विद्याचरण शुक्ल के साथ विश्वासघात करने के शैली के प्रणेता बन चुके हैं।

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18 दिनी महाभारत लड़ने के बाद गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में छत्तीसगढ़ के सबसे प्रमुख राजनेता ने आखिर अपना दम तोड़ दिया। कांग्रेस के काफिले पर माओवादियों के अंधाधुंध गोलीचालन के एक शिकार शुक्ल भी हुए जिनके बचने की उम्मीदें अंधेरे में, जुगनू की रोशनी की तरह उनके शुभचिंतकों में इतने दिनों तक झिलमिलाती रही । शुक्ल का व्यक्तित्व विवादग्रस्त, जुझारू और उपलब्धियों के लिहाज़ से कांटों भरा रहा । उन्होंने अधिकतर समझौते नहीं किए और अपने से बड़े नेताओं को भी प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष चुनौतियां देते रहे। हालात ऐसे हुए कि वे जनता दल, एन सी पी, भाजपा वगैरह में भी शामिल हुए।
उनका एक तेवर 1980 में मध्यप्रदेश कांग्रेस विधायक दल के नेता के चुनाव को लेकर मैंने देखा। कांग्रेस उच्च कमान की इच्छा के खिलाफ उन्होंने विधायकों का गुप्त मतदान कराया। उनके द्वारा समर्थित आदिवासी नेता शिवभानु सोलंकी ने अर्जुन सिंह से ड्योढ़े मत पाए। फिर भी अर्जुन सिंह को नेता चुना गया। उन्होंने  बाद में यही कहा कि उन्हें मालूम था कि उनकी बात नहीं मानी जाएगी। फिर भी उच्च कमान को यह बताना ज़रूरी था कि कांग्रेस विधायक दल की असली हालत क्या है। शुक्ल के इसी तेवर के कारण राजीव गांधी से भी उनकी अनबन हुई। उन्हें जो मिल सकता था, वह नहीं मिला।
आई. ए. एस. के नौजवान कलेक्टरों पर शुक्ल बहुत मेहरबान होते थे। डी. जी. भावे, विजयशंकर त्रिपाठी, नजीब जंग, अजीत जोगी वगैरह कुछ उदाहरण हैं। बाद में इनमें से कई अधिकारियों ने विद्या भैया का हितसाधन नहीं किया।
उनका सबसे शक्तिशाली लेकिन खराब दौर आपातकाल के सूचना प्रसारण मंत्री का था। आपातकाल में भारतीय प्रेस ने उनसे बेसाख्ता नफरत की, परहेज किया और उन्हें हिटलर के बड़बोले प्रमचार मंत्री गोयबल्स तक की उपाधि से विभूषित किया। यह वही दौर था जिसकी राजनीतिक गलतखयाली के कारण इंदिरा गांधी और संजय गांधी को चुनावों में पूरी पार्टी समेत मुंह की खानी पड़ी थी। इसके बाद भी शाह कमीशन के सामने सबसे पहले विद्याचरण शुक्ल ने कहा था कि मैंने सब कुछ अपने मन से किया है, इंदिरा जी के कहने पर नहीं।
मैंने उनसे विज्ञान, बागवानी, टेक्नाॅलाॅजी, पत्रकारिता, उद्योग, व्यापार, कृषि, फैशन, धर्म आदि विषयों पर दिमागी रसमयता के साथ बातें सुनी हैं। साहित्य-संस्कृति-कला को लेकर बहुत अधिक नहीं और फिल्मों को लेकर बिल्कुल नहीं बातें भी हमारे खाते में दर्ज हैं। मैं शुरू से टेनिस को मर्दानगी का असली खेल उन्हें बताता रहा। क्रिकेट के प्रति मेरा बेरुख अलगाव भी उन्हें मालूम था। एक बार अचानक क्रिकेट के खिलौनेनुमा छोटे से बल्ले को उन्होंने भेंट में दिया। उस पर टेनिस के महान खिलाडि़यों बोरिस बेकर और स्टेफी ग्राफ के आॅटोग्राफ थे। मेरी तरफ देखकर वे खिलाड़ी वृत्ति की कुटिलता में मुस्कराए और बोले, ‘तुम्हारे प्रिय खेल के विश्व प्रसिद्ध खिलाड़ी भी क्रिकेट के बल्ले पर ही हस्ताक्षर करते हैं। अब इसे कैसे नहीं रखोगे।‘
विद्या भैया किसी भी सभा में देर से ही जाते थे। कहते थे इससे सभा में ग्रेस (सौंदर्य) आता है। यदि दरभा के काफिले में वे अपनी उसी देरी को दूरी में कायम रखते तो उन्हें अकाल मृत्यु नहीं मिलती। उनमें कार्यकर्ताओं का कमांडर बनने की अद्भुत कूबत थी। उनके संपर्क में आकर कई लोग करोड़पति हुए । धीरे धीरे उनसे छूटने वालों की फेहरिस्त बहुत लंबी हो गई ।
उन्होंने कहा था कि मुझे अधिक धन कमाना चाहिए। तब ही राजनीति में बेहतर गुंजाइशें बनती हैं। मैंने जवाब दिया था धन कमाने के जीन्स मुझमें नहीं हैं। विद्या भैया ने ठंडेपन से कहा था कि मुझे राजनीति छोड़ देनी चाहिए। राजनीति की जो हालत है उसे देखकर लगता है उनकी सलाह तल्खी में नहीं तर्क की तलहटी से दी गई थी।
छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी सरकार ने विद्याचरण शुक्ल की याद में कुछ नहीं किया जबकि अधिकांश  विधायकों और मंत्रियों पर कभी न कभी उनका वरद हस्त रहा है। छुटभैये जातिवादी नेताओं के होर्डिंग्स और विज्ञापनों से प्रचार का बाजार भले ही महंगा होता रहें।(फेसबुक पर पोस्ट )
(लेखक संविधान मर्मज्ञ,गांधीवादी चिन्तक और छत्तीसगढ़ के पूर्व महाधिवक्ता हैं |  यह उनका निजी विचार है|  deshdigital.in  असहमतियों का भी स्वागत करता है)

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