बिलकिस बानो मामला : दोषियों की सजा माफी रद्द, गुजरात सरकार का फैसला अवैध-सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो सामूहिक दुष्कर्म और हत्या मामले में गुजरात सरकार के फैसले को पलटते हुए दोषियों की सजा माफी रद्द कर दी है.

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नई दिल्ली| सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो सामूहिक दुष्कर्म और हत्या मामले में गुजरात सरकार के फैसले को पलटते हुए दोषियों की सजा माफी रद्द कर दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दोषियों को अब फिर से जेल जाना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जहां अपराधी के खिलाफ मुकदमा चला और सजा सुनाई गई, वही राज्य दोषियों की सजा माफी का फैसला कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा दोषियों की सजा माफी का फैसला गुजरात सरकार नहीं कर सकती बल्कि महाराष्ट्र सरकार इस पर फैसला करेगी. गौरतलब है कि बिलकिस बानो मामले की सुनवाई महाराष्ट्र में हुई.

सुप्रीम कोर्ट ने 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ सामूहिक दुष्कर्म और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या मामले में अजीवन कारावास की सजा काट रहे 11 दोषियों की 2022 में समयपूर्व रिहाई के गुजरात सरकार के फैसले को अवैध करार देते हुए सोमवार को रद्द कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों को दो सप्ताह के भीतर संबंधित जेल प्रशासन के समक्ष आत्मसमर्पण का आदेश दिया है.

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न्यायमूर्ति बी वी नागरना और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि इस मामले में सजामाफी के मुद्दे पर गुजरात सरकार ने 10 अगस्त 2022 को जो फैसला किया, वह उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता, इसलिए सजामाफी का उसका फैसला रद्द किया जाता है. पीठ ने कहा कि मुकदमे की सुनवाई महाराष्ट्र की अदालत में हुई थी, इसलिए सजामाफी पर फैसला लेना वहां की सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है.

पीठ ने अपने फैसले में कहा, “हम मानते हैं कि गुजरात सरकार के पास माफी मांगने वाले आवेदनों पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं था, क्योंकि यह इस मामले में आपराधिक प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के तहत उपयुक्त (सरकार) नहीं थी.”

पीठ ने कहा, “इसलिए छूट के आदेश दिनांक 10.08.2022 को दिए गए प्रतिवादी संख्या 3 से 13 (11 दोषियों) का पक्ष अवैध और अनुचित है. इसलिए इसे खारिज कर दिया गया है. ‘ न्यायमूर्ति नागरना की पीठ ने यह भी माना कि शीर्ष अदालत की दो सदस्यीय एक अन्य पीठ का 13 मई 2022 का  आदेश “कानून की नजर में शून्य और गैर-मान्य” (उसकी कोई कानूनी मान्यता नहीं) था, क्योंकि यह अदालत को अंधेरे में रखकर (तथ्य छुपा कर) हासिल किया गया था. यह आदेश यह एक बाध्यकारी मिसाल नहीं है. पीठ ने कहा अदालत के साथ सारे तथ्यों का खुलासा न करना औरर तथ्यों को गलत तरीके से पेश करना गलत है.

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