जातिगत जनगणना को जनसंख्या सर्वेक्षण में शामिल करने का फैसला: देश और बिहार चुनाव पर क्या होगा असर

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नई दिल्ली: केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक ऐतिहासिक फैसले में जनसंख्या सर्वेक्षण के साथ जातिगत जनगणना को शामिल करने की मंजूरी दे दी है. यह निर्णय देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिशीलता को नया आकार दे सकता है, खासकर बिहार जैसे राज्यों में, जहां जाति आधारित राजनीति का गहरा प्रभाव है. इस कदम आगामी बिहार विधानसभा चुनावों के लिए एक महत्वपूर्ण राजनीतिक कदम माना जा रहा है.

जातिगत जनगणना का समावेश भारत की सामाजिक और प्रशासनिक नीतियों को गहराई से प्रभावित कर सकता है. विशेषज्ञों का मानना है कि यह पहल सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकती है.

  • नीति निर्माण में सुधार: जातिगत जनगणना से प्राप्त आंकड़े सरकार को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति (एससी), और अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदायों की सटीक जनसंख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पता लगाने में मदद करेंगे. इससे शिक्षा, रोजगार और कल्याणकारी योजनाओं को अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकेगा.
  • आरक्षण नीति पर बहस: बिहार में 2023 के जातिगत सर्वेक्षण ने दिखाया कि ओबीसी और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) मिलकर राज्य की 63% आबादी का हिस्सा हैं. इस तरह के आंकड़े राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण की 50% सीमा को चुनौती दे सकते हैं, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के इंद्रा साहनी मामले में तय किया गया था.
  • राजनीतिक ध्रुवीकरण: विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने जातिगत जनगणना को सामाजिक न्याय के मुद्दे के रूप में उछाला है, जिससे वह हिंदुत्व आधारित राजनीति का मुकाबला करने की कोशिश कर रहा है. दूसरी ओर, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने इसे जाति आधारित विभाजन का प्रयास करार दिया है. यह मुद्दा 2024 के चुनावों में प्रमुख राजनीतिक ध्रुवीकरण का कारण बन सकता है.

बिहार चुनाव पर प्रभाव

बिहार, जहां जाति आधारित राजनीति लंबे समय से चुनावी परिणाम तय करती रही है, वहां यह फैसला गेम-चेंजर साबित हो सकता है.

  • पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण: बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव जैसे नेताओं ने जातिगत सर्वेक्षण को सामाजिक न्याय के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है. 2023 के सर्वेक्षण के बाद, ओबीसी और ईबीसी समुदायों की भारी आबादी (63%) ने इन नेताओं को अपनी नीतियों को और मजबूत करने का मौका दिया. अब राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना से इन समुदायों की मांगें और तेज हो सकती हैं.
  • विपक्ष को बढ़त: राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और जनता दल (यूनाइटेड) जैसे दल इस फैसले को अपनी जीत के रूप में पेश कर रहे हैं. आरजेडी सांसद संजय यादव ने इसे दशकों पुरानी मांग की जीत बताया. यह विपक्ष को बिहार में ओबीसी और ईबीसी वोटरों को एकजुट करने का अवसर दे सकता है.
  • बीजेपी की रणनीति पर असर: बीजेपी, जो अब तक हिंदुत्व और कल्याणकारी योजनाओं के दम पर ओबीसी वोटरों को आकर्षित करती रही है, अब इस मुद्दे पर नई रणनीति बनानी होगी. बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कुर्मी (81%) और कोइरी (51%) जैसे ओबीसी समुदायों का समर्थन मिला था. लेकिन जातिगत जनगणना की मांग विपक्ष के पक्ष में माहौल बना सकती है.

जातिगत जनगणना के समावेश से कई चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह समाज में जातिगत विभाजन को और गहरा सकता है. बीजेपी नेता और केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने पहले कहा था कि केंद्र सरकार की ऐसी कोई योजना नहीं है. इसके अलावा, सर्वेक्षण की वैधता और डेटा की सटीकता को लेकर कानूनी चुनौतियां भी उठ सकती हैं, जैसा कि बिहार सर्वेक्षण के मामले में देखा गया.

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