कोविड के बाद ऑफलाईन परीक्षाएं : अब गुणवत्ता पर फोकस करने की दरकार

कोविड के बाद अंततः छत्तीसगढ़ के सभी राजकीय विश्वविद्यालयों के समस्त महाविद्यालयों में सेमेस्टर की ऑफलाईन परीक्षाएं चल रही हैं। ऑफलाईन परीक्षाओं के परिणाम आने में अभी वक्त है लेकिन तमाम शिक्षाविदों एवं प्राध्यापकों की उम्मीदें हैं कि परीक्षा परिणाम बेहतर आये तो अच्छा है,

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कोविड के बाद अंततः छत्तीसगढ़ के सभी राजकीय विश्वविद्यालयों के समस्त महाविद्यालयों में सेमेस्टर की ऑफलाईन परीक्षाएं चल रही हैं। ऑफलाईन परीक्षाओं के परिणाम आने में अभी वक्त है लेकिन तमाम शिक्षाविदों एवं प्राध्यापकों की उम्मीदें हैं कि परीक्षा परिणाम बेहतर आये तो अच्छा है, लेकिन आशंका यह भी है कि क्या तीन साल बाद आफॅलाईन हुई या हो रही परीक्षा के परिणाम संतोषजनक आ सकते हैं ?

डॉ. लखन चौधरी

कोविड के बाद अंततः छत्तीसगढ़ के सभी राजकीय विश्वविद्यालयों के समस्त महाविद्यालयों में सेमेस्टर की ऑफलाईन परीक्षाएं चल रही हैं। ऑफलाईन परीक्षाओं के परिणाम आने में अभी वक्त है लेकिन तमाम शिक्षाविदों एवं प्राध्यापकों की उम्मीदें हैं कि परीक्षा परिणाम बेहतर आये तो अच्छा है, लेकिन आशंका यह भी है कि क्या तीन साल बाद आफॅलाईन हुई या हो रही परीक्षा के परिणाम संतोषजनक आ सकते हैं ? बहरहाल, कोविड के बाद आफॅलाईन हुई एवं हो रही सेमेस्टर परीक्षाओं के परिणामों को लेकर तमाम शिक्षाविदों, विद्यार्थियों एवं अभिभावकों में उत्सुकता है। सकारात्मक परिणाम की जिज्ञासा या उम्मीदें पालना स्वाभाविक है, लेकिन इसके अप्रत्याशित परिणामों के लिए भी सबको तैयार रहना चाहिए।

पिछली बार जब कोविड की आशंकाओं के चलते 2022 की महाविद्यालयीन परीक्षाओं को जब सरकार ने ऑनलाईन करने की घोषणा की थी, तब विद्यार्थियों का एक ऐसा वर्ग भी था जो इस निर्णय से नाखुश दिखा था। विद्यार्थियों का पढ़ने-लिखने वाला वर्ग, सरकार के इस निर्णय से सहमत नहीं लगा था। इसकी मुख्य वजह यह है कि ऑनलाईन पद्धति से हासिल उपाधि या प्राप्त डिग्री कॅरियर के लिए सहायक या फायदेमंद नहीं रहती है, साथ ही साथ यह जीवन के लिए भी लाभदायक कतई नहीं है। मुद्दे की बात यह है कि ऑनलाईन पद्धति से हासिल डिग्री रोजगार या स्वरोजगार के लिए भी मददगार नहीं है, लिहाजा पढ़ने-लिखने वाला विद्यार्थी वर्ग ऑनलाईन परीक्षा पद्धति से नाखुश रहा है।

प्रतिस्पर्धा के इस जमाने में, जहां गलाकाट प्रतियोगिता का युग है; ऑनलाईन पद्धति से हासिल या प्राप्त की गई डिग्री की कोई कीमत नहीं रह जाती है। एक-एक पदों की नौकरियों के लिए जहां हजारों-हजार की तादाद में बेरोजगारों की फौज खड़ी है, ऐसे में ऑनलाईन डिग्रियों को कौन पूछता है ? जहां भर्तियां प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के माध्यम से होती हों, वहां प्राप्तांकों की क्या कीमत रह जाती है ? यह बड़ा सवाल है और सोचने की बात भी है।

बेरोजगारी या स्वरोजगार का मसला एक है। मगर उच्चशिक्षा की गुणवत्ता एवं गुणात्मकता का मसला इससे अधिक महत्वपूर्णं है, जिसकी अनदेखी एवं उपेक्षा हमारी सरकारें लगातार करती आ रहीं हैं। दरअसल में उच्चशिक्षा की महत्ता कॅरियर या रोजगार या स्वरोजगार के लिए जितनी महत्वपूर्णं है या होती है; उससे कहीं अधिक उपयोगी जीवन की समस्याओं एवं चुनौतियों के निपटने के लिए होती है। सरकारों को यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिरकार थोक में डिग्रियां बांटकर उच्चशिक्षित बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी करने के अतिरिक्त सरकारें कर क्या रहीं है ?

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सांकेतिक तस्वीर

छत्तीसगढ़ शासन के उच्चशिक्षा विभाग की कार्यसंस्कृति एवं कार्यशैली की इस विवेचना एवं विश्लेषण में इस बात की चर्चा जरूरी है कि राज्य में उच्चशिक्षा के विस्तारीकरण के नाम पर छोटी-छोटी जगहों पर महाविद्यालय खोल दिये जा रहे हैं, जहां ठीक से पहुंच मार्ग भी नहीं हैं। स्थानीय स्कूलों के बेकार पड़े जगहों, कुछ कमरों पर महाविद्यालय संचालित किये जा रहे हैं, जहां कोई सुविधाएं नहीं हैं। न प्रोफेसर, न कर्मचारी, न संसाधन, न भवन, न पुस्ताकालय, न प्रयोगशाला, मगर विद्यार्थियों को प्रवेश देकर परीक्षाएं ली जा रही हैं। राज्य के सैकड़ों महाविद्यालयों की यह स्थिति है। कुछ सालों बाद भवन बना दिया जाता है, लेकिन पढ़ाने वाले प्रोफेसर की व्यवस्था इन महाविद्यालयों के भाग्य में नहीं है। जब स्थानीय स्तर पर भारी मांग उठती है तो आसपास के महाविद्यालयों से प्रोफेसरों की व्यवस्था तात्कालिक तौर पर कर दी जा रही है, मगर कुछ ही महिनों बाद उनका भी स्थानांतरण हो जाता है।

छोटे-छोटे गांवों में महाविद्यालय खोलने से स्थानीय विद्यार्थी वहीं प्रवेश लेकर डिग्री हासिल कर ले रहे हैं, लेकिन इन विद्यार्थियों के ज्ञान, कौशल, अनुभव में किसी भी तरह की वृद्धि नहीं हो पा रही है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि इनके पास डिग्री है, लेकिन कोई हुनर नहीं है, लिहाजा इस प्रतिस्पर्धी बाजारवाद की दुनिया में कहीं टिक नहीं पा रहे हैं। रोजगार के लिए भटक रहे हैं, मगर चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल पा रही है। इनके पास इतना हुनर, अनुभव नहीं है, या इनमें इतनी काबिलियत नहीं है कि स्वयं का कोई स्वरोजगार भी खड़ा कर सकें। कभी कभार सरकारी पैसे से कोई काम शुरू भी कर लेते हैं तो उसको आगे चला नहीं पाते हैं। कुछ ही दिनों में सब बंद हो जाता है।

उच्चशिक्षा के प्रचार-प्रसार एवं विस्तारीकरण से लोगों को उच्च शिक्षित बनाने की बात ठीक तो है, मगर डिग्री बांटने के इस खेल से भला किसी का नहीं हो रहा है। उच्चशिक्षा में शिक्षा, ज्ञान, कौशल, हुनर, अनुभव, साहस सब कुछ गायब होती जा रही है, सिर्फ डिग्री बची है। ऐसी कागजी डिग्री जो नौकरी तो दिला नहीं सकती है, लेकिन डिगीधारी पढ़े-लिखे होने का अहसास जरूर कराती रहेगी। निष्कर्ष यह है कि अब उच्चशिक्षा के फैलाव एवं विस्तारीकरण के बजाय गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित किया जाने की दरकार अधिक है।

(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)

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