अनुभूति और अभिव्यक्ति

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अनुभूति एक प्रकार का अमूर्त संवेदनों का पुंज है। जिसको व्यक्त करने के लिए प्रतीक और बिंब की आवश्यकता होती है। बिंब का संबंध अनुभव से है और प्रतीकों का संबंध विचारों से है। प्रतीक विशुद्ध रुप से अर्थपरक और वैचारिक होते हैं। अर्थ की चरम परिणति प्रतीकों में होती है।

अनुभूति का अभिव्यक्ति के बिना कोई अस्तित्व नहीं होता। जब हम प्रेम, घृणा, निराश आदि की अनुभूति की बात करते हैं तो इस अनुभूति में अभिव्यक्ति निहित रहती है।

अनुभूति के तत्व अभिव्यक्ति के तत्वों के माध्यम से रुप धारण करते हैं। मानव-प्रकृति में कुछ ऐसे तत्व हैं जो सार्वभौम तथा सार्वकालिक हैं जो विभिन्न देशकाल के मानव प्राणियों में मूलतः समान हैं। अनुभूति के कुछ विशेष क्षणों में उनके अभिव्यक्त करना अनिवार्य हो जाता है। अभिव्यक्ति की यही अनिवार्यता काव्य या कला की जननी है।

साधारण अनुभूति और काव्यगत अनुभूति दो भिन्न वस्तुएं हैं। क्रोचे का कथन है कि अनुभूति वही है जो काव्य या कलाओं के रुप में अभव्यक्ति होती है। जिस अनुभूति में यह अभिव्यक्ति क्षमता नहीं है वह वास्तव में अनभूति न होकर कोरी इंद्रीयता या मानसिक जमहाई मात्र है। वह अनुभूति जो आत्मिक व्यापार का परिणाम है सौंदर्य रुप में अभिव्यक्त हुए बिना रह ही नहीं सकती उसे काव्य स्वरुप ग्रहण करना ही पड़ेगा।

एक साहित्यकार के संदर्भ में यह प्रक्रिया ही उसके सृजन मूल्यों को जन्म देती है क्योंकि अन्य की तुलना में वह अधिक सजग होता है और उन मानव मूल्यों को ग्रहण करने का प्रयास करता है जो कल्याणकारी शुभ और सर्जनात्मक हो।

जिसे साहित्य कहा जाता है वह साधारण व्यक्तित्व की साधारण अभिव्यक्ति नहीं है वरन विशेष व्यक्तित्व की विशिष्ट अभिव्यक्ति है। किंतु साहित्यिक स्तर की रक्षा के लिए मौलिक आवश्यकता है अनुभूति तथा अभिव्यक्ति की पूर्णता अर्थात निश्छ्ल आत्माभिव्यक्ति या आत्मसर्जना। केवल व्यक्तित्व की महत्ता उसे साहित्य का गौरव नहीं दे सकती।

प्रत्येक साहित्यिक कृति का संबंध कृतिकार के व्यक्तित्व से है। कृतिकार का अपना रागात्मक जीवन और उसके आधार पर निर्मित जीवन दर्शन कृति मेँ अनिवार्यतः प्रतिफलित होता है। अभिव्यक्ति अर्थात कला सृजन की प्रक्रिया में पड़कर व्यक्तिगत भाव भी स्व-पर की सीमाओं से मुक्त होकर व्यापक चेतना का विषय बन जाता है।

रचनाकार एक व्यक्ति के रुप में किसी वाद का अनुयायी या समर्थक हो, लेकिन सृजन की अतिशय जटिल प्रक्रिया में भाग लेते हउए उसे अपनी आसक्ति और आग्रह का अतिक्रमण करना पड़ सकता है। एक व्यक्ति के रुप में वह किसी वाद या दर्शन के प्रति जिम्मेदार है पर रचनाकार के रुप में उसकी जिम्मेदारी मनुष्य मात्र के प्रति है।

कवि, नाटककार, गीतकार, चित्रकार और मूर्तिकार का मुख्य उद्देश्य है रुप देना, परंतु रुप किसे दिया जाता है। जो कुछ देखा है उसे या जो कुछ समझा है उसे।

साधारणतः यह माना जाता है कि जो वस्तु जैसी दिखती है उसे ज्योँ का त्यों चित्रित कर देना व्यक्ति निरपेक्ष दृष्टि है और दृष्ट व्सतु को जैसा समझा है उस समझ को रुप देना व्यक्ति सापेक्ष दृष्टि है।

संसार के अनेक मनीषी विद्वानों ने कालात्मक अभिव्यक्ति का विकास दिखलाते समय रुप को यथादृष्ट भाव से चित्रित करने के कौशल को ही कलात्मक विकास की कसौटी मान लिया है। कलाकार यदि चाहता है कि वह द्रष्व्य को यथादृष्ट रुप में चित्रित करे तो वह बहुत कुछ वैसा कर सकता है। परंतु कभी भी वह फोटो के समान ज्यों का त्यों बिल्कुल चित्रित नहीं कर सकता, चक्षु का यथादृष्ट निरंतर मानस अनुभूतियों से भी तो चित्त-प्रवाह के दबाव का ही रुप है।

मानसिक कृति के कारण आलेख्य में कुछ घट-बढ़ होती है उसका नवीनीकरण या विश्षीकरण हो जाता है यह विशेषीकरण जितना अधिक होगा उतना ही चित्र विषयीपरक होगा और दबाने का जितना प्रयास होगा उतना ही विषयपरक।

परंतु अत्यधिक सावधान होने पर भी आत्मपरक तत्व आ जाते हैं इसलिए कोई भी रुपकार चाहे वह शब्द शिल्पी हो, चित्र शिल्पी हो या मूर्ति शिल्पी किसी वस्तु को विशुद्ध विषयपरक रुप में ग्रहण नहीं कर पाता। आदर्श के योग से यथार्थ सजीव बना जाता है और यथार्थ के योग से आदर्श वास्तविक। आदर्श कल्पाना से परिपुष्ट होता है।

कविन्द्र रवीन्द्र ने यथार्थ और आदर्श को तथ्य और सत्य कहा है। जैसा कुछ है उसे उसी रुप में चित्रित करना तथ्या है तता उस तत्य को जिन साधनों के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है वह सत्य है। ये ही सत्य और तथ्य मिलकर साहित्य को चिरस्थायी बनाते हैं।

अभिव्यिक्ति में भाषा का प्रश्न स्वाभाविक है। चूंकि रचनाकार अपने जिये हुए परिवेश से होकर गुजरता है और इस गुजरने में कोई एक तथ्य उसके कोलम तंतुओं को झंकृत कर देता है। यही झंकृति उसके मन पर प्रथम बिंब का निर्माण करती है जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा का मार्ग ढूंढ लेता है।

भाषा की मुख्य भूमिका संप्रेषण क्षमता से जुड़ी है और संप्रेषणीयता निर्भर है शब्द चयन पर, उसकी शैली पर। तत्सम, तद्भव, देशी ,विदेशी , ग्रामीण, प्रांतीय सभी प्रकार के शब्दों के प्रयोग से रचनाकार संप्रेषणीयता को कितने गहन स्तर तक रख पाता है, रचनाकार पर निर्भर करता है।

वर्तमान में भाषा का बदलाव साफ देखा जा सकता है। भाषा का यह बदलाव भी वस्तुतः बदली हुई संवेदना की देन है. नई संवेदनाओं ने रचनाकार को भाषा के अनेक नये प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया है। नये भाषा कसाव ने अनुभूति को गहनता दी है। नए संदर्भों में शब्द नए हो गए हैं, जिनके अर्थ कोशगत अर्थों से व्यापक हैं और व्याकरण एवं भाषा विज्ञान की सीमा से बाहर निकलने लगे हैं।

आंचलिक शब्दों के प्रयोग की सीमा होनी चाहिए नहीं तो भाषा दुरूह हो जाती है। पाठकों की रुचियां समान नहीं होतीं। सफल और सार्थक भाषा वही है जो बिना किसी हिचक के अच्छे शब्दों को जहां से और जब भी हो सके अपने लिए उठा ले। कभी-कभी शब्द अपने मूल रुपों ( प्रादेशिक) में ही हिंदी में खपा सकते हैं और कभी उनमें परिवर्तन की गुंजाइश भी अनुभव की जा सकती है। वैसे भी हमारी हिंदी की आत्मसात करने की क्षमता विराट है।

कुछ बातें अब की संदर्भ से जुड़ी

छत्तीसगढ़ में अभी कुछ महीनों पहले, जन्म से पत्रकार और रंगकर्म से जुड़े रहे केवल कृष्ण के उपन्यास बघवा में छत्तीसगढ़ी शब्दों के प्रयोग भरपूर देखने को मिले। संप्रेषणीयता कहीं बाधक नहीं,एक बैठक में पढ़ने की लालसा बनी रह जाती है। ध्वनिमय शब्दों का प्रयोग फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास परती परिकथा में देखने को मिला था। एकबारगी इसे पढ़ते रेणु याद आ गए। छत्तीसगढ़ के रचनाधर्मी जब छत्तीसगढ़ी शब्दों का प्रयोग अपनी रचनाओं में करते हैं तो वे हिंदी को बलशाली करते जरूर हैं।

अंत मे डा. नगेन्द्र के शब्दों में यह निष्कर्ष— प्रबल अनुभूति की सफल अभिव्यक्ति ही साहित्य का मूल तत्व है और अनुभूति की प्रबलता तथा अभिव्यक्ति की सफलता के आधार पर ही साहित्यगुण के तारतम्य का आंकलन किया जा सकता है। अनुभूति के मूल्यांकन की पहली कसौटी है उसका मानवीय गुण और मानवीय गुण के निर्णायक तत्व हैं—आनंद और कल्याण, प्रेय और श्रेय।

और अभिव्यक्ति की सफलता के मूल्यांकन की सकौटी है संप्रेषण क्षमता।

-डॉ निर्मल कुमार साहू 

(यह नोट्स वर्ष 1988-89 का है जब मैं एम ए हिंदी का छात्र था। हो सकता है हिंदी अध्येताओं के लिए मददगार साबित हो- मैंने परीक्षा के मद्देनजर तैयार किया था)

 

 

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