तो यह मठ और संघ का प्रपंच क्यों?  

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साधु जी! तुम्हें भी बेटा-बेटी चाहिए पर दूसरों का जन्माया। शिष्य जरुरी हैं तो क्यों नहीं शादी कर संतान जन्मा कर देख लेते। यदि सचमुच संसार से विरक्त हो चुके हो तो फिर यह मठ और संघ का प्रपंच क्यों?

 -बद्री प्रसाद पुरोहित

राजकुमार सिद्धार्थ को जब संसार की असारता का बोध हुआ ।बीमारी, जरा,मृत्यु की विभीषिका का साक्षात्कार करने के बाद ,उनके मन में तीव्र वैराग्य का संचार हुआ,और उनने घोर तपस्या ,साधना करने के लिए राजमहल छोड़ने का कठोर निश्चय कर लिया।

पिता के घर न छोड़ने के आग्रह पर राजकुमार सिद्धार्थ ने पिता राजा शुद्धोधन के सम्मुख कुछ शर्तें रखीं कि पिता यदि आप मुझे कुछ बातों की गारन्टी दें तो मैं घर न छोडूँ।

मुमुक्षु सिद्धार्थ की शर्तें थीं(1) मैं बीमार न पडूं(2) मैं बूढ़ा न होऊँ(3) मेरा राज पाट सदा बना रहे (4) मेरी मृत्यु न हो।

शुद्दोधन क्या भगवान भी इसकी गारंटी नहीं दे सकते।

शुद्धोधन की जगह उस दिन मैं रहता तो सिद्धार्थ से कहा होता ,ठीक है बेटे,मेरे पास तुम्हारे लिए ऐसी कोई गारंटी नहीं है, पर तुम मुझे यह गारंटी दो कि संन्यासी हो जाने के बाद तुम्हें भूख नहीं लगेगी,नींद नहीं सताएगी,तुम कतई बीमार नहीं पड़ोगे| तुम्हारा राज्य अविचल होगा| तुम अमर हो जाओगे| इसकी गारंटी तुम मुझे दो और सहर्ष वन को वैरागी होकर चले जाओ।

खैर राजकुमार सिद्धार्थ विरक्त होकर तपस्या से निखर कर महात्मा बुद्ध बन गए पर जरा और मृत्यु से तो बच नहीं सके।

सिद्धार्थ जब तपोवन में थे वहाँ ऋषियों से मिले,उपवास रखा,प्रचलित तपस्या के तरीकों से उन्हें शांति और ज्ञान नहीं मिला।

तपस्या की निस्सारता का बोध होने पर सुजाता के हाथों खीर खाई। बोधि वृक्ष के नीचे अचानक उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, वे भगवान् बुद्ध हुए। मध्यम मार्ग को उनने श्रेष्ठ बताया।

सम्यक आजीविका,सम्यक वाणी,सम्यक दृष्टि,सम्यक आचरण,सम्यक संकल्प सम्यक व्यायाम जैसी बातों पर जोर दिया।

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बुद्ध को निरीश्वर वादियों में गिना जाता है वे मूर्ति पूजा ब्राह्मण वाद और कर्मकाण्ड के विरोधी थे पर उनके अनुयायी अब बुद्ध की मूर्ति की निश्चित कर्मकाण्ड से औपचारिक पूजा करते हैं।

आज मैं सोच रहा हूँ,बुद्ध को जैसे ही तपस्या की निस्सारता का बोध हुआ ,उन्हें बेझिझक राजमहल लौटना था व निर्लिप्त भाव से राजपाट संभालना था। उनके शिष्य अशोक ने विरक्ति के बाद राज्य का त्याग नहीं किया और राजा बने रहकर धर्मकार्य और धर्मप्रचार में ज्यादा सफलता पाई।

दुखों से मुक्ति के रहस्य को सुलझाने का दावा करने वाले संन्यासी बुद्ध, स्वयं दुखों से पार हो गए होंगे और उनके उपदेश से उनके अनुयायियों ने शान्ति लाभ किया और कर ही रहे हैं पर क्या बुद्ध पिता, पत्नी और पुत्र को भी शोक मुक्त कर पाये थे ?

संन्यास ,ब्रह्मचर्य,वानप्रस्थ का बहुत संकुचित अर्थ आदिकाल से प्रचलित है| किसी भी तरह से वीर्यपात से बचना, विवाह व संतानोत्पति से बचना, पर निश्चित रूप से संन्यास का इतना संकुचित अर्थ भर नहीं है।

तो यह मठ और संघ का प्रपंच क्यों?  
पेशे से शिक्षक बसना निवासी बद्री प्रसाद पुरोहित सोशल मिडिया पर भी बने हुए हैं| कट्टरपंथियों का हमला झेल चुके पुरोहित जी की डायरी भी चर्चित है| मौजूदा हालात में उनका यह चिंतन काफी सोचने को विवश कर देता है|

साधु किसी भी महिला के समक्ष माँ भिक्षा दो,भवति भिक्षाम देहि कहकर उदर पोषण कर लेते हैं| उन्हें अपने जननी के हाथों भोजन प्राप्त करने में क्यों शर्म और आपत्ति होनी चाहिए? परिवार संस्था उनका पालन पोषण आराम से कर लेगी|

जो युवक युवती संन्यास के रास्ते में चल विवाह नहीं करते हैं उन्हें भी अपने परिवार के बीच ही रहना चाहिए| घोर परिश्रम कर शरीर धर्म,मनुष्य धर्म का पालन करना चाहिए, इदं न मम ,भाव के साथ।

साधु बाबाजी! तुमको किसान का अनाज और व्यापारी का धन चाहिए। धन तुम्हारे लिए भी जरूरी और आवश्यक है तो तुम क्यों नहीं खेती और व्यापार कर लेते?

साधु जी! तुम्हें भी बेटा-बेटी चाहिए पर दूसरों का जन्माया।शिष्य जरुरी हैं तो क्यों नहीं शादी कर संतान जन्मा कर देख लेते। यदि सचमुच संसार से विरक्त हो चुके हो तो फिर यह मठ और संघ का प्रपंच क्यों?

(यह लेखक के निजी विचार हैं,  deshdigital असहमतियों का भी स्वागत  करता है)

 

 

 

 

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