आत्महत्या का अमरबेल: महाविद्यालयों में ’नैक’ ग्रेडिंग का लगातार बढ़ता दबाव

पिछले कुछ सालों से देशभर के शासकीय, अनुदानित अथवा निजी सभी प्रकार के महाविद्यालयों में अनिवार्य रूप से ’नैक’ ग्रेडिंग या मूल्यांकन कराने का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। नैक की अच्छी ग्रेडिंग या बेहतर रैंकिंग आने पर ही राजकीय या शासकीय महाविद्यालयों को  विश्वविद्यालय अनुदान आदि केन्द्रीय संस्थाओं एवं सरकारों से अनुदान मिलने या अधिक अनुदान मिलने की शर्तें लगा दी गईं हैं।

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छत्तीसगढ़ समेत अनेक राज्यों में नैक के मानदण्ड या पैमाने के अनुरूप न तो संसाधन एवं सुविधाएं हैं, और न ही इस तरह के कार्यों के लिए मनोबल एवं मानसिकता। नैक के मानदण्ड या पैमाने के अनुसार काम करने के लिए जिस तरह की सोच एवं कार्यशैली तथा कार्यसंस्कृति की जरूरत होती है, राज्य में उसका नितांत अभाव दिखता है। जब राजधानी एवं जिला मुख्यालयों के महाविद्यालयों में इसकी कमी है, तो ग्रामीण स्तर के महाविद्यालयों की तो बात ही छोड़ दीजिए।

-डॉ. लखन चौधरी

आत्महत्या का अमरबेल: विवेचना एवं पड़ताल की दरकार (4)

पिछले कुछ सालों से देशभर के शासकीय, अनुदानित अथवा निजी सभी प्रकार के महाविद्यालयों में अनिवार्य रूप से ’नैक’ ग्रेडिंग या मूल्यांकन कराने का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। नैक की अच्छी ग्रेडिंग या बेहतर रैंकिंग आने पर ही राजकीय या शासकीय महाविद्यालयों को  विश्वविद्यालय अनुदान आदि केन्द्रीय संस्थाओं एवं सरकारों से अनुदान मिलने या अधिक अनुदान मिलने की शर्तें लगा दी गईं हैं।

इसी तरह निजी महाविद्यालय भी इसमें अच्छी ग्रेडिंग या रैंकिंग लाते हैं, तो उन्हें भी कई प्रकार के मदों पर भारी भरकम सहायता, अनुदान राशियां मिलने लगी हैं। जिसकी वजह से इन दिनों सभी तरह के महाविद्यालय नैक मूल्यांकन के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते दिखते हैं। यही वजह है कि नैक में अच्छे प्रदर्शन  करने के लिए महाविद्यालयों के प्राचार्यों एवं प्राध्यापकों पर काम का अत्यधिक दबाव रहने लगा है। यह भी उच्च शिक्षा सेवा में तनाव एवं दबाव का एक बड़ा कारण बनता जा रहा है।

चूंकि छत्तीसगढ़ सहित देश  के अधिकांश राज्यों के उच्च शिक्षा विभागों में आधारभूत साधनों, संसाधनों एवं सुविधाओं की भारी कमियां है। दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में तो इनकी स्थिति और भी दयनीय है, लिहाजा महाविद्यालयों को नैक की ग्रेडिंग कराने के लिए पुरजोर मश क्कत करनी पड़ती है।

इसकी एक मुख्य वजह यह भी है कि छत्तीसगढ़ समेत अनेक राज्यों में नैक के मानदण्ड या पैमाने के अनुरूप न तो संसाधन एवं सुविधाएं हैं, और न ही इस तरह के कार्यों के लिए मनोबल एवं मानसिकता। नैक के मानदण्ड या पैमाने के अनुसार काम करने के लिए जिस तरह की सोच एवं कार्यशै ली तथा कार्यसंस्कृति की जरूरत होती है, राज्य में उसका नितांत अभाव दिखता है। जब राजधानी एवं जिला मुख्यालयों के महाविद्यालयों में इसकी कमी है, तो ग्रामीण स्तर के महाविद्यालयों की तो बात ही दोड़ दीजिए।

नैक की ग्रेडिंग कराना वास्तव में टेड़ीखीर इसलिए है, क्योंकि इसके पैमानों पर राज्यों के 90 से 95 फीसदी महाविद्यालय फीट ही नहीं बैठते हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इसके लिए एक अलग तरह की कार्यशै ली एवं कार्यसंस्कृति की आवश्यकता होती है, तभी नैक में अच्छे रैंक या अच्छे ग्रेड मिलते हैं, मिल सकते हैं। चूंकि राज्य के महाविद्यालय, प्रोफेसर एवं प्राचार्य इस तरह की ’वर्क प्रेक्टिस’ के आदि नहीं हैं, लिहाजा तमाम जोर आजमाइसों के बावजूद नैक में अच्छे रैंक-ग्रेड नहीं आ रहे हैं।

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इसकी वजह से सरकार की ओर दबाव बढ़ता जा रहा है। फिर एक बार नैक की ग्रेडिंग कराने के पांच साल बाद फिर से नैक की ग्रेडिंग करानी होती है। यानि महाविद्यालय, प्रोफेसर एवं प्राचार्यों को इसके लिए लगातार काम करना पड़ता है। तभी कहीं जाकर ठीकठाक ग्रेड मिलता है।

राज्य के बड़े-बड़े धाकड़ एवं नामी-गिरामी महाविद्यालयों को नैक की ग्रेडिंग में इतना बुरा ग्रेड मिला है कि कहीं बात करने के लायक नहीं हैं। जिन महाविद्यालयों को अच्छा ग्रेड मिला उनको आगामी ग्रेडिंग के लिए लगातार सक्रिय रहना पड़ता है। इसकी वजह से कई अच्छे रैंकिंग वाले महाविद्यालयों के प्रचार्यों को कई तरह की बीमारियां हो चुकी हैं, अस्पतालों में एडमिट हो चुके हैं। नैक की इन्हीं लगातार बढ़ते दबावों एवं तनावों के चलते राज्य के दर्जनों वरिष्ठ प्रोफेसरों ने ऐच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन लगाया है।

कोविड कालखण्ड में कोरोना एवं सेहत ने भी लोगों के साथ जिस तरह का खेल किया है, इससे भी प्रोफेसर भयभीत हैं। तात्पर्य यह है कि इस वक्त सारे महाविद्यालयों, प्रोफेसरों एवं प्राचार्यों पर नैक का भारी दबाव है जिसके चलते उच्च शिक्षा सेवा में समस्याएं एवं कठिनाईयां लगातार बढ़ती जा रही हैं।

एक समय में उच्च शिक्षा सेवा में जिस तरह की चार्मिंग या कहें कि जिस तरह का आकर्षण था, नैक ने सब कुछ खत्म कर दिया है, या कहा जाये नैक की वजह से यह दिनोंदिन खत्म होता जा रहा है। अब उच्च अकादमिक योग्यताधारी युवाओं की पहली प्राथमिकता उच्च शिक्षा सेवा नहीं रही है। इसकी प्रमुख वजह सरकारों की गलत एवं गैर-जरूरी नीतियां हैं।

महाविद्यालयों से अध्ययन-अध्यापन का वातावरण समाप्त होता जा रहा है, होने लगा है, या इनसे अब सरकारों को मतलब नहीं है। इसलिए अब अच्छे अकादमिक योग्यता वाले युवाओं की प्राथमिकता में उच्च शिक्षा की नौकरी द्वितीयक होती जा रही है। इन सब वजहों से उच्च शिक्षा की गुणात्मकता लगातार घटती जा रही है, जो चिंता की बड़ी वजह होनी चाहिए।

दुर्भाग्य की बात यह है कि अब राज्य में उच्च शिक्षा में गुणात्मकता की चर्चाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है, जबकि नैक इसी ’गुणात्मकता’ का मूल्यांकन करती है। सरकार चाहती है कि गुणवत्ता या गुणात्मकता के बगैर सरकारी महाविद्यालयों को नैक मूल्यांकन में अच्छी रैंकिंग मिल जाये, जो कि असंभव है।
क्रमशः

(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)

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