आर्थिक सुरक्षा, शिक्षा-साहस औरत को ऊपर उठने में मदद करती है: जया जादवानी

तो ऐसी कौन सी चीज़ है जो औरत को ऊपर उठने में मदद कर सकती है. आर्थिक सुरक्षा और शिक्षा और साहस. अगर आपके जीवन में शिक्षा नहीं है तो आप एक अंधकार में जियोगे-मरोगे और आपके जीवन की बागडोर हमेशा दूसरे के हाथ में रहेगी. और ये बात स्त्री हो या पुरुष सबके लिए सच है. यह बातें जाने माने साहित्यकार जया जादवानी ने अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन केअंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस  पर आयोजित कार्यक्रम में कहीं. 

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रायपुर| तो ऐसी कौन सी चीज़ है जो औरत को ऊपर उठने में मदद कर सकती है. आर्थिक सुरक्षा और शिक्षा और साहस. अगर आपके जीवन में शिक्षा नहीं है तो आप एक अंधकार में जियोगे-मरोगे और आपके जीवन की बागडोर हमेशा दूसरे के हाथ में रहेगी. और ये बात स्त्री हो या पुरुष सबके लिए सच है. यह बातें जाने माने साहित्यकार जया जादवानी ने अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन केअंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस  पर आयोजित कार्यक्रम में कहीं.

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस साल में एक बार क्यों साल भर मनाया जाना चाहिए ! अंतराष्ट्रीय महिला दिवस जब 8 मार्च मनाया जाता है तब हर साल अक्सर यह बात सुनने को मिलता है. लेकिन अब ऐसा नहीं है वजह जो भी हो अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन ने इस महीने अलग अलग जगहों पर अलग अलग दिन महिला दिवस के कार्यक्रम का आयोजन किया है.

उसी कड़ी में पिछले शनिवार को रायगढ़ जिले के धरमजयगढ़ विकास खंड में अंतराष्ट्रीय महिला दिवस कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस में जाने माने साहित्यकार जया जादवानी, अलावा धरमजयगढ़ के एसडीएम, डाइट के प्राचार्य, सिडिपियो के अलावा अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के तमाम साथी हिस्सा लिए.

इस कार्यक्रम में दर्शकों के रूप में स्थानीय शिक्षक, आंगनबाड़ी शिक्षक, मितानिन, स्वयं सहायता ग्रुप के सदस्य और समुदाय के साथी बड़ी तादाद में मौजूद थे.

  • धरमजयगढ़ में महिला दिवस पर अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन का आयोजन

कार्यक्रम की शुरुआत में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के रायगढ़ जिले जिला प्रमुख सुभाष गोस्वामी ने सबका स्वागत करते हुए अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन का परिचय प्रदान करते हुए धरमजयगढ़ में क्या काम हो रहा है और होने वाला है इसकी जानकारी दी वहीँ फाउंडेशन के धरमजयगढ़ विकासखंड के कोआर्डीनेटर शिशिर नायक ने अंत में धन्यवाद ज्ञापन किया.

कार्यक्रम में मौजूद श्रोताओं और खासतौर से महिला श्रोताओं से उन्होंने संवाद स्थापित करते हुए कई अहम् सवाल किये और उन्हें झकझोर दिया और उन्हें अपनी अस्तित्व जाहिर करने, अपने मन का काम करने और दिल से जीने की सलाह दी.

उन्होंने ऐसे कई सवाल किये जैसे आप इतने संघर्ष करके इस मुकाम में पहुँचने के बाद भी आपके घरों में कोई पहचान है? आपका अस्तित्व है आप अपने घरों में खुश हैं ? आपको वैसा ही सम्मान मिलता है जैसे पुरुषों को मिलता है. आप क्या वैसे ही आजाद हैं जैसे पुरुष हैं ?

फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस तरह से रखा –

“जीवन में जितनी तब्दीलियाँ, जितने बदलाव आज हम देख रहे हैं, वह कुछ महीनों या वर्षों में नहीं आई है बल्कि यह आजादी हासिल करने के लिए बहुत सारी स्त्रियों ने बहुत संघर्ष किया है. अपने पढ़ने के अधिकार से लेकर, अपना जीवन साथी खुद चुनने, अपना जॉब खुद चुनने, अपनी मर्ज़ी से कपड़े पहनने, घूमने-जीने की आज़ादी जो मुठ्ठी भर स्त्रियाँ हासिल कर पाईं हैं, उसके लिए उनको बड़ी जंग लड़नी पड़ी है. दरअसल औरत सदियों से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. वह वर्षों की जिल्लत, सहानुभूति, अपनी कब्र और कमज़ोरियों से बाहर निकलने को छटपटा रही है.

धीरे-धीरे हमने समाज का नक्शा बदलते हुए देखा है पर चूँकि हमारा समाज भी कई लेयर्स में है तो यह बदलाव भी कई लेयर्स में है. कही, खासतौर पर शहरों में आप लड़कियों को बहुत छोटे और तंग कपड़ों में पाएंगे पर गाँव में वे अभी भी घूँघट करती मिल जाएंगीं. गावों में अभी भी उनका कार्यक्षेत्र किचन से बैडरूम तक ही है. अभी भी उनको पढ़ने के लिए, आगे बढ़ने के लिए घर से बड़ी जंग करनी पड़ती है. भ्रूण हत्या आज भी होती है, अलग-अलग तरीकों से.

ज़जीरें टूट रही हैं पर सबके लिए नहीं. अब कमअज़कम शहरी स्त्री घर में कैद नहीं रही. अब वह उन-उन विषयों पर बहस कर रही है, जिन पर बात करने की उसे परमीशन नहीं थी.

दोस्तों हम आधी दुनिया हैं, वो आधी दुनिया जो अपने हक़ और हैसियत से नावाकिफ है. हक़ कि उसे क्या मिला हुआ है और क्या अभी तक नहीं मिल पाया है और जिसके लिए एक लड़ाई की दरकार है. हैसियत कि एक मनुष्य के रूप में वह क्या है? उसकी पहचान क्या है? एक मनुष्य के रूप में उसकी पहचान है भी या उसे अब तक मादा और होममेकर ही माना जाता है. वे ‘होममेकर’ ज़रूर हैं पर ‘होम’ उनका नहीं है, उन्हें बड़ी आसानी से बेदखल किया जा सकता है. बीज हमारी कोख़ में जन्मता है, फ़सल पर नाम उनका चढ़ता है. पेपर्स पर संपत्ति उनके नाम है, हम ‘नामिनी’ बने रहकर खुश हैं. पुरुष के दिल और घर में जगह बनाने की कोशिशों, फिक्रों और साजिशों में हमारी ज़िंदगी गलतान हुई जा रही है. पहले हम ढीली-ढाली मादा थे, अब चुस्त-दुरुस्त मादा हैं पर मादा बने रहने की नियति से भाग नहीं पा रहे हैं.

हमारी माएं ऐसे रहती थीं, जैसे वे नहीं हैं और उन्होंने हमको भी यही सिखाया. असुरक्षा में रहने वाली माएं थोड़े मिले हुए को भी बहुत समझतीं थीं. उन्होंने खुद को और अपनी बेटियों को कुछ नहीं समझा और कुछ नहीं से कुछ होने का सफ़र आज की लडकियाँ को करना होता है.

यह अपने अनुभव से जानते हैं कि स्त्री का न अपना घर होता है, न परिवार, न नाम, न पहचान, न अपनी बोली, न अपनी संस्कृति, न अपनी जाति. उसे हर चीज़ पुरुष से प्राप्त होती है. उसका अपना कुछ नहीं होता. शायद तभी वह चीज़ें इकठ्ठी करने में सुख ढूंढती हैं और आगे बढ़ने के मौकों को गँवाना नहीं चाहतीं क्योंकि गंवाने को उसके पास गुलामी के सिवा कुछ नहीं है.

सच तो यह है दोस्तों कि जब पुरुष की निगाह से गिरने का डर ख़त्म हो जाता है, तभी खुद को देखने की नई आँख पैदा होती है.

औरत यह बात आहिस्ता-आहिस्ता समझ गई है कि अपनी आज़ादी का दरवाज़ा उसे खुद ही खोलना है, न पिता, न पति, न बेटा, कोई उसकी मदद नहीं कर सकता. उसे जो करना है, खुद करना है.

जो विवाह स्त्रियों के पर क़तर कर उसे एक घर की जेल में बंद रखता है और जिसके लिए उसे अपने सपने, अपना कैरियर, अपना गोल सब छोड़ने पड़ते थे, उसके बंधन भी ज़रा से ढीले हुए हैं और जिन स्त्रियों में खुद खाने और कमाने का साहस है, अपनी आइडेंटिटी खोजने का हौसला है, वे थोड़ी मुश्किल से ही सही, घर और शादी की जेल से निकल भागती हैं.

सजग स्त्री सिर्फ़ देह की आज़ादी ही नहीं चाहती, मानसिक आज़ादी भी चाहती है.

स्त्री की आज़ादी की यह लड़ाई साहित्य में बहुत पुरानी है. रुकैया सखावत हुसैन. 1903 में प्रकाशित कहानी ‘सुलताना का सपना’ लेकर. यहाँ उन्होंने मर्द रुपी शतरंज की बिसात ही पलट दी. पहले जहाँ घरों में औरत कैद थी, रुकैया ने वहां मर्दों को बैठा दिया और हुकूमत औरतों की कर दी. ‘सुलताना का सपना’ में मर्द कहीं नहीं है. मर्द घरों में हैं. वही औरत वाली चारदीवारी में बंद. घुटन और बेबसी का शिकार. आख़िर हमने यह कैसा समाज बनाया है कि हमारी आधी आबादी के लिए घुटन और बेबसी का बायस बन गया है और स्त्रियाँ ‘सुल्ताना’ जैसा सपना देखने को मजबूर हैं. इसका एक अंश देखिए …..

‘सारे मर्द कहाँ हैं?” मैंने पूछा.

‘अपने सही जगह पर हैं, जहाँ उन्हें होना चाहिए.’

‘सही जगह से तुम्हारा क्या मतलब है भला?’

‘ओह, समझी. तुम पहले यहाँ कभी नहीं आई हो न. सो हमारे रिवाज़ों से परिचित नहीं हो. हम अपने मर्दों को घरों में बंद रखते हैं, जैसे हमें जनाना में रखा जाता था.’

औरत की बगावत शायद इससे भी पुरानी है. कहते हैं खुदा ने पहले ‘आदम’ को पैदा किया फ़िर उसकी तन्हाई दूर करने उसकी पसली से हौवा को पैदा किया. जन्नत में सबकुछ खाने की आज़ादी थी पर एक पेड़ के बारे में हुक्म था कि इसके फ़ल कभी न खाए जाएं. नाफ़रमानी की पहली रिवायत यहीं से शुरू होती है. औरत जन्म से ही अपनी जिज्ञासाओं को दबाने में नाकाम रही है. आदम ने लाख समझाया पर हौवा ने वह फ़ल तोड़कर खा ही लिया. नतीजे में उन्हें जन्नत से निकाला गया और वे दुनिया में आ गए.

भय स्त्री का स्थायी भाव है. दूसरों द्वारा मूल्यांकन किए जाने का भय, सुन्दरता के न रहने का भय, पुरुष की निगाहों से उतर जाने का भय, दूसरी स्त्री के अधिक सुंदर होने का भय, शारीरिक अक्षमता का भय, इज्ज़त का भय, रेप का भय, बूढ़े होकर फ़ालतू हो जाने का भय. स्त्री के भय के अनेक रूप हैं.यह भय उसे ईर्ष्यालु और कुटिल भी बनाते हैं, असुरक्षित और अंधविश्वासी भी बनाते हैं. आपने देखा होगा, बाबाओं के पास सबसे ज़्यादा औरतों की भीड़ पाई जाती है. जब उसे ज़मीनी हकीक़त में वह सब नहीं मिलता, जो वह चाहती है   तो वह उसे कल्पना में हासिल करने की कोशिश करती है.

अपने भीतर की बात कहकर वह उस भय को जीतने की कोशिश करती है. अपने आपसे बातें करना उसका ‘रिलीफ़’ है. औरत को कोई नहीं सुनता क्योंकि उसके पास कहने को अपनी गृहस्थी के छोटे-मोटे झगड़ों और राग द्वेष के अलावा और कुछ नहीं होता तो अक्सर वह बातूनी हो जाती है, जिसे लोग उसका ‘चबर-चबर’ करना कहते हैं.

तो ऐसी कौन सी चीज़ है जो औरत को ऊपर उठने में मदद कर सकती है. आर्थिक सुरक्षा और शिक्षा और साहस. अगर आपके जीवन में शिक्षा नहीं है तो आप एक अंधकार में जियोगे-मरोगे और आपके जीवन की बागडोर हमेशा दूसरे के हाथ में रहेगी. और ये बात स्त्री हो या पुरुष सबके लिए सच है. शिक्षा आपके पैरों और दिमाग की भी जंजीरें खोलती है. यह आपको आपकी संस्कारबद्धता से आज़ाद करती है. आपके लिए नई दुनियाओं के दरवाज़े खोलती है. यह आपको पंख देती है कि आप अनंत आकाश में उड़ सको.

और आर्थिक मजबूती. अगर आप आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हैं, आप कभी भी अपने फैसले खुद नहीं ले पाएँगीं और साहस जो आपको विपरीत परिस्थितियों में भी खड़ा रखता है.

आइए देखते हैं लैंगिक आधार पर एक पुरुष को क्या-क्या हासिल है, जो स्त्री के पास नहीं है …………….

राजनीति – सबसे पहले राजनीति में देखें तो हाल इतना बुरा है कि यहाँ स्त्रियाँ एक वोट बैंक से अधिक कुछ नहीं हैं. या तो उसे ऊपर ही नहीं आने दिया जाता, किसी तरह ज़रा सा ऊपर आ भी गई तो आप सरेआम उसके लिए कुछ भी कह सकते हैं. शायद ही कोई लीडर होगा जो स्त्री कुलीग को आदर से संबोधित करता हो, जबकि इलेक्शन के दौरान वे इस आधी आबादी को लुभाने की कोशिशों में लग जाते हैं. चाहे वह गैस की सबसिटी हो या लोन की स्कीम्स और ये सिर्फ़ झुनझुने हैं, जो इलेक्शन के दौरान बजाए जाते हैं. इससे एम्पावरमेंट तो छोडिए, कोई भी स्त्री को घरेलू और बाह्य हिंसा तक से नहीं बचा पाया है.

पिछले लॉकडाउन में जो 25 मार्च से 31 मई तक था, लगभग डेढ़ हज़ार स्त्रियों ने घरेलू हिंसा के खिलाफ़ शिकायत दर्ज़ कराई. जो शिकायत दर्ज़ नहीं करा पातीं, उनकी संख्या कितनी होगी?

स्त्री के पावरफुल होते ही उसे किनारे या ठिकाने लगा देने की साज़िशें शुरू हो जाती हैं. यहां तक कि पंचायत राज में भी उनकी कोई ख़ास भूमिका नहीं है. जहाँ महिला सरपंच होती भी है, वहां उसकी आड़ में उसका पति या देवर ही सारे फैसले लेता है.

जो विमन्स कमीशन बनाए गए हैं, वे भी पावरलेस हैं. वे स्त्री की समस्याओं को डील नहीं करते. जितनी भी बेटी बचाने, पढ़ाने और विधवाओं को ग्रांट देने की स्कीम्स है, इससे स्त्री मजबूत नहीं होती. ये फैंसी शब्दावली है. स्त्रियों को काबिल बनाए बिना उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता. हमें काबिल बनना है, मदद नहीं लेनी. जब तक सिर्फ़ वेलफेयर पर ध्यान दिया जाता रहेगा, कुछ नहीं होगा. हमें स्किल बढ़ानी पड़ेगी. हमारे यहाँ अधिकतर स्त्रियों के पास स्किल नहीं है क्योंकि उन पर कोई ध्यान नहीं देता.

आज़ादी के बाद 14 प्रतिशत से भी कम सेकेर्ट्री लेवल पर स्त्रियाँ हैं. महत्वपूर्ण सेक्टर जैसे, डिफेंस, फायनेंस, होम, कामर्स और रेलवे वगैरह में कितनी स्त्रियाँ हैं? 800 से अधिक यूनिवर्सिटीज़ होंगी पर स्त्री वाइस चांसलर सिर्फ़ दर्जन भर.

अभी तक यहाँ का रिकार्ड है कि यहाँ एक स्त्री प्राइम मिनिस्टर और कोई दर्जन भर चीफ़ मिनिस्टर पिछले 75 सालों में बन पाई हैं और उनकी जो दुर्गति हुई है, उस पर बात करना बेकार है. भारतीय पुरुष आज भी उसे देवी बनाकर चारदीवारी वाले मंदिर में महफूज़ और मजबूर ही रखना चाहता है.

आर्थिक – अर्थतंत्र तो शुरू से ही पुरुषों के हाथ में रहा है और अभी भी है. वह स्त्री को गुज़ारा-भत्ता या घर चलाने को मनी देता है और बदले में स्त्री क्या-क्या देती है? अपना जिस्म, अपनी वफ़ादारी, स्त्री उसका सबकुछ संभालती है जबकि लेबल पुरुष का लगा रहता है. यह बंटवारा कि स्त्री घर का काम संभाले, पुरुष बाहर का, यही आर्थिक विभाजन स्त्री की गुलामी का प्रमुख कारण बना. हालाँकि अब बहुत हद तक औरतों को यह बात समझ में आ गई है और वे आर्थिक निर्भरता की ओर बढ़ रहीं हैं पर यह संख्या अभी बहुत थोड़ी है.

सामजिक – समाज में अभी भी स्त्री की हैसियत और मालकियत नहीं है. घर और समाज पुरुष के नाम से चलता है. औरत अगर है तो किसी की बेटी, बीबी या मां है. अगर आपमें से किसी को यह लगता हो कि यह बात बहुत पुरानी है तो मेरे प्यारे दोस्तों, गाँवों में और शहरों में भी हालात यही हैं. पोस्ट ग्रेजुएशन स्त्रियाँ शादी के बाद भी घूँघट करती हैं. सास का आदेश सिर झुकाकर सहती हैं. कम लोगों के ससुर-बहू के झगड़े सुने होंगे, सास-बहू के झगड़े अभी भी आम हैं. यहाँ मैं ज़ोर देकर एक बात कहना चाहूंगी कि स्त्री की इस हालत के लिए पुरुष ही नहीं, खुद स्त्री ज़्यादा जिम्मेदार है. स्त्री ने अगर अपने आसपास की तमाम स्त्रियों को ऊपर उठने में मदद की होती तो अभी तक स्त्री की इतनी दुर्गति न हो रही होती.

जितनी खाप पंचायतें हैं, उनमें स्त्री नहीं है. स्त्री के लिए हुए निर्णयों को कोई बहुत तवज्जह नहीं देता. स्त्री पर निर्णय थोपे जाते हैं और आज भी स्त्री का सबसे बड़ा अपराध है अपने पति के अलावा किसी और को चाहना या उससे सेक्स करना. जींस, मोबाइल, विवाह आनर किलिंग जैसे सभी निर्णय पुरुष लेता है. कई बार खुद औरत भी अपने डरों या कंडीशनिंग की वजह से अपने पिंजड़े से बाहर नहीं जाना चाहती, चाहे पिंजड़े का दरवाज़ा खुला हुआ क्यों न हो? डर भी बहुत सारे हैं. बेईज्ज़ती का डर, रेप का डर, परिवार का डर इत्यादि-इत्यादि.  विधवाओं की स्थिति देख लीजिए आज भी.

स्त्री के खिलाफ़ अपराधों की संख्या किस तरह बढ़ रही है, आप सभी जानते हैं. सोशल और डिज़िटल मीडिया उस पर आराम से निशाना साध सकता है, वह भी उसके बॉडी पार्ट्स को लेकर.

नेशनल क्राइम रिकार्ड के हिसाब से 88 रेप डेली होते हैं. सिर्फ़ 2019 में चार लाख से अधिक क्राइम दर्ज़ किए गए हैं यानि ऐसे बहुत और होंगे, जो दर्ज़ नहीं हुए.

कॉरपोरेट – उन जगहों में से है जहाँ लड़कियां खुद को ज़्यादा स्वतंत्र मानती हैं क्योंकि वे घर की कैद से आज़ाद होकर अपनी मर्ज़ी से जी पाती हैं. यहाँ उनके काम करने के अवसर भी ज़्यादा हैं पर यहाँ भी उनके साथ क्या होता है? चंदा कोचर और इंदिरा नुई जैसे कुछ चुनिन्दा नाम हैं, जो इस कारपोरेट जगत में अपनी पहचान बना पाईं पर बाकी स्त्रियों का अधिकतर टेलेंट अपने बॉस को खुश करने और रिझाए रखने के चक्कर में ज़ाया होता रहता है. बहुत जगहों पर उन्हें कम पेमेंट दी जाती है. उसे हर दिन खुद को साबित करना पड़ता है, वह अगर किसी ऊँचे पद पर है तो यह मान लिया जाता है कि व अपने टेलेंट    के बल पर नहीं, ग़लत रास्तों से यहाँ तक पहुंची होगी. सुन्दरता भी औरत की दुश्मन है तब तो यह मान ही लिया जाता है कि उसने जो हासिल किया है, अपनी सुन्दरता को भुनाकर किया है.

धार्मिक – धर्म ने तो शुरू से ही स्त्री को हेय दृष्टि से देखा है. धर्म के नाम पर ही उसे बाँधा गया है. पुरुष जब चाहे घर का फंदा गले से निकाल कर ‘आत्मा-परमात्मा’ की खोज में जा सकता है, औरत अभी मन के उतार-चढ़ाव में उलझी है. अभी घर और बच्चे ही उसका स्वर्ग हैं. चारदीवारी फलांगने पर वह आज भी कुलटा कहलाई जाती है. सबरी मलाई मंदिर में अभी भी औरतों का प्रवेश वर्जित है.

साहित्यिक – इस क्षेत्र के सभी भाई-बहिन मेरे साथ बैठे हैं. यहाँ भी न जाने कितने अपमानों से से उसे गुज़रना पड़ता है. किसी से भी मेलजोल बढ़ने या बढ़ाने पर सीधे उसके चरित्र पर ऊँगली उठाई जाती है.

अभी कल की ही बात है, ‘एलिफेंट विस्पर्स’ की डायरेक्टर कार्तिकी गानसाल्व, जिसने इसी फिल्म में डेब्यू किया है और प्रोडयूसर- गुनीत मोंगा को इस डाक्यूमेंट्री के लिए आस्कर मिला है. कैसे? वे भी हमारे जैसी औरतें हैं. वे अपनी रोज़मर्रा की हकीकतों से ऊपर उठ सकीं, एक बड़ा ख्वाब देख सकीं और उसे पूरा करने में जुट गईं. आपको पता है आप बड़ा ख्वाब कैसे देख सकती हैं? जब आप अपनी रोज़मर्रा की चीज़ों से ऊपर उठेंगी, तभी कुछ नया सोच पाएंगीं.

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अब यह बात सबके लिए है. जब आप आधी आबादी को घर में कैद करते हैं तो क्या करते हैं? उसकी प्रतिभा को नष्ट तो करते ही हैं, उस प्रतिभा से होने वाले फ़ायदे भी न आप उठा पाते हैं, न अपने देश को उठाने देते हैं. लड़कियां लड़कों से ज़्यादा मेहनत करती हैं, उन्हें हर बार खुद को साबित करने का चैलेज उठाना पड़ता है क्योंकि वे बड़ी मुश्किलों से घर से निकली होती हैं और वे जानती हैं कि अगर उन्होंने खुद को साबित नहीं किया तो वे फ़िर घर में कैद कर ली जाएँगी शादी के नाम पर. और आपको एक बात और बताऊँ, आधुनिक लड़की शादी नहीं करना चाहती. आधुनिक लड़की लिव इन रिलेशनशिप में रहना चाहती है, ताकि वक्त बेवक्त वहाँ से अपनी जान छुड़ाई जा सके और यह क्यों हो रहा है? हमारा परिवार, हमारा समाज उनके लिए ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करता है. जो लडकियाँ जॉब करती हैं, वे अपने घरों में वापस नहीं लौटना चाहतीं. तो शिक्षा की ज़रूरत तो पूरे समाज को है, हर इंसान को है ताकि वह और बेहतर बन सके और एक वर्गभेद रहित समाज का निर्माण हो सके.

अंत में एक महत्वपूर्ण बात कहना चाहती हूँ. स्त्रीवाद को पुरुष के ख़िलाफ़ नहीं समझा जाना चाहिए और न ही स्त्री को पुरुष की तरह व्यवहार करने की ज़रूरत होनी चाहिए. दोनों दो विपरीत हैं और तभी उनमें आकर्षण है और प्रेम है और प्रेम की ज़रूरत हर मनुष्य को है. समूची कुदरत को है. प्रेम के साथ विकास और प्रेम के बगैर विनाश ही संभव है. पुरुष को यह समझना होगा कि ग़ुलाम स्त्री उसकी सेवक हो सकती है, उसे प्रेम नहीं कर सकती और अगर आप अति पुरुष बने तो प्रेम मिलने की संभावनाएँ और भी कम हो जाएँगी. नई स्त्री को अपने लिए एक नया पुरुष चाहिए, तभी दोनों के बीच एक लय पैदा होगी, एक गीत का जन्म होगा. हर स्त्री एक बुद्ध पुरुष ढूंढ रही है और बुद्ध माने क्या? यही कि पुरुष स्त्री को मात्र माँस का लोथड़ा न समझे, उसे एक ऑब्जेक्ट की तरह न देखे, उसे गर्भ और देह में रिड्यूस न करे, बल्कि उसका साथी बनकर रहे.

हमें एक दोस्त समाज बनाना है, जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों की सहभागिता और प्रेम हो.”

और अंत में उन्होंने एक कविता सुनाई- जो आठवीं में पढाई जाती है और जिसे लगभग बीस बरस पहले उन्होंने लिखा था …..

‘एक दिन औरत का दिन होगा

एक दिन वह खिलाएगी

दूध से सनी रोटियाँ

दुनिया के सारे बच्चों को

एक दिन होंगी उसकी छातियाँ

प्रेम की नदी से भरपूर

वह चलना सिखाएगी

दुनिया की सारी सभ्यताओं को

वह हँसेगी कि

उसकी हँसी में होगी सिर्फ़ हँसी

और कुछ नहीं होगा

गीत फूटेंगे होंठों से

लोरियाँ बनकर

वह स्थगित कर देगी

सारे धर्म, सारे युद्ध

वह एतबार का पाठ पढ़ाएगी

एक दिन औरत का दिन होगा

जा हम जान नहीं पाएंगे उसका सुख

क्योंकि हम कभी जान नहीं पाए

दुःख उसका.’

2- अपने बारे में

मैं इतना कम जानती हूँ अपने बारे में कि

जब कोई पूछता है मुझसे सवाल

मेरी पसंद, नापसंद

मेरे शौक, मेरे स्वपन के बारे में

तो मैं यकबयक परेशान होकर

जोहती हूँ मुँह उसका

जिन्होंने पकड़ी हुई है ऊँगली मेरी

जिन्होंने मुझे

बरसों पहले रटवा दिए थे शास्त्र

और निश्चिन्त थे कि

वे सारे जवाब मुझे याद हैं

वे नहीं जानते शास्त्र उनके

मैं भूल चुकी हूँ, नया अभी बनाया नहीं है

हिज्जे-हिज्जे एक-एक अक्षर सीखती मैं

अभी तो बना सकती हूँ एक-एक वाक्य पूरा

जो जैसा है, उसे वैसा देखकर

कोई जब पूछता है मेरे बारे में

मैं इतना ही कहती हूँ

अभी-अभी पार किए हैं मैंने सारे सन्नाटे

बीज अक्षरों के जो बोए थे हथेली पर

चिरती हथेली से वे झाँक रहे बाहर

मैं रह-रह कर काँप उठती हूँ

पीड़ा और प्रसन्नता से एक साथ.

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