नोटबंदी उपयोगिता, प्रभाव, परिणाम और औचित्य

सुप्रीमकोर्ट के निर्णय के बाद नोटबंदी पर बहस भले ही अब खत्म हो जाती है, लेकिन नोटबंदी उपयोगिता, प्रभाव, परिणाम और औचित्य के मसले पर सदैव सवाल खड़ा करती रहेगी।

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सुप्रीमकोर्ट के निर्णय के बाद नोटबंदी पर बहस भले ही अब खत्म हो जाती है, लेकिन नोटबंदी उपयोगिता, प्रभाव, परिणाम और औचित्य के मसले पर सदैव सवाल खड़ा करती रहेगी। नोटबंदी भले ही अपने मकसद एवं प्रक्रिया में सही रही हो, लेकिन उसको लागू करने के तरीके कतई सही नहीं थे। नोटबंदी से सैकड़ों जानें गईं। लाखों लोगों को बेवजह की परेशानी उठाना पड़ी। नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को भी कोई खास हासिल नहीं हुआ है। कालाधन बाहर निकालने का मकसद असफल हुआ है।

डॉ. लखन चौधरी

सुप्रीमकोर्ट के निर्णय के बाद नोटबंदी पर बहस भले ही अब खत्म हो जाती है, लेकिन नोटबंदी उपयोगिता, प्रभाव, परिणाम और औचित्य के मसले पर सदैव सवाल खड़ा करती रहेगी। नोटबंदी भले ही अपने मकसद एवं प्रक्रिया में सही रही हो, लेकिन उसको लागू करने के तरीके कतई सही नहीं थे। नोटबंदी से सैकड़ों जानें गईं। लाखों लोगों को बेवजह की परेशानी उठाना पड़ी। नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को भी कोई खास हासिल नहीं हुआ है। कालाधन बाहर निकालने का मकसद असफल हुआ है। व्यवस्था में प्रचलित 98 फीसदी मुद्रा बैंक में वापस आ गई थी, इसका तात्पर्य है कि कालाधन बाहर निकालने एवं भष्ट्राचार पर चोट पहुंचाने जैसे मकसद बुरी तरह असफल हुए हैं। साफ है कि नोटबंदी न केवल गैर-कानूनी थी, बल्कि और इससे अधिक नोटबंदी अकारण एवं औचित्यहीन थी।

नोटबंदी को छह साल पूरे हो गये हैं। नोटबंदी के छह साल के पड़ताल से स्पष्ट है कि इन छह सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था को नोटबंदी से कोई खास हासिल नहीं हुआ है। सिस्टम यानि व्यवस्था से दो फीसदी कालाधन ही बाहर निकल पाया, यानि सरकार व्यवस्था से दो फीसदी कालाधन ही बाहर निकाल पाने में सफल रही है। इधर देश में भष्ट्राचार चरम पर पहुंच गया है। इन छह सालों में नोटबंदी से क्या हासिल हुआ ? यह सवाल आज तक न केवल अनुत्तरीत है, बल्कि आज तक यक्ष प्रश्न बना हुआ है। सरकार इस पर अभी तक कुछ भी बोलने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन अब, जब इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया है, सरकार इसके फायदे गिनाने लगी है।

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सरकार के मुताबिक नोटबंदी का फैसला या निर्णय रिजर्व बैंक के केंद्रीय निदेशक मंडल की विशेष अनुशंसा पर लिया गया था। नोटबंदी वास्तव में जाली करंसी, टेरर फंडिंग, काले धन और कर चोरी जैसी समस्याओं से निपटने की योजना का हिस्सा और असरदार तरीका थी। यह आर्थिक नीतियों में बदलाव से जुड़ी सीरीज का बड़ा कदम था।’ सरकार ने नोटबंदी के फायदे भी गिनाए हैं। ’नोटबंदी से नकली नोटों में कमी आई है, डिजिटल लेन-देन में बढ़ोत्तरी हुई है, बेहिसाब आय का पता लगाने जैसे कई लाभ हुए हैं।’ इधर आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अपनी पुस्तक ’आई डू व्हाट आई डू’ में खुलासा किया है कि उन्होंने कभी भी नोटबंदी का समर्थन नहीं किया। उल्लेखनीय है कि 8 नवम्बर 2016 को नोटबंदी की घोषणा के ठीक पहले 4 सितम्बर 2016 को सरकार से मतभेद के चलते तात्कालिन गर्वनर रघुराम राजन ने पद से इस्तिफा दे दिया था। इसके बाद डिप्टी गर्वनर उर्जित पटेल को इसकी कमान सौंपी गई थी, जिन्होंने भी 10 दिसम्बर 2018 को सरकार से मतभेदों के चलते इस्तिफा दे दिया था।

सवाल उठता है कि जब नोटबंदी के इतने सारे नफा-नुकसान थे, तो सरकार ने इन छह सालों में इस पर कभी बात करना तक उचित क्यों नहीं समझा ? नोटबंदी पर बहस से सरकार हमेशा क्यों भागती रही या बचती रही ? यह अलग बात है कि नोटबंदी के तत्काल बाद हुए उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को भारी जीत मिली। इसके बाद लोगों ने भी इस पर बात करना बंद कर दिया, शायद यह समझकर कि नोटबंदी के बावजूद सरकार या भाजपा की छवि पर इसका कोई विपरीत असर देखने को नहीं मिला है, लिहाजा नोटबंदी सरकार के लिए तो फायदेमंद ही रही है। समग्रता में इसकी सफलता-असफलता की बात करना या सवाल खड़ा करना अलग मसला हो सकता है।

2016 में प्रधानमंत्री मोदी के अनुसार नोटबंदी के पांच प्रमुख उद्देश्य थे। अर्थव्यवस्था से कालाधन को खत्म करना, नकली नोटों को खत्म करना, बड़े नोटों को कम करना जिससे कालाधन जमा न हो सके, देश को कैशलेस बनाना यानि डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देना और कालेधन से पनपने वाले आंतकवादी एवं नक्सली गतिविधियों पर प्रहार करना यानि आतंकवादी एवं नक्सली संगठनों की कमर तोड़ना। आज स्थिति यह है कि डिजिटल लेनदेन में बढ़ोतरी को छोड़कर इसका कोई उद्देश्य पूरा हुआ नहीं है। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार चलन की 99 फीसदी मुद्रा आरबीआई के पास वापस आ गई थी, कहा जाये कि 15.41 लाख करोड़ के जो नोट या मुद्रा नोटबंदी के बाद अमान्य हो गये थे, में से 15.31 लाख करोड़ रू. बैंकों के माध्यम से वापस आ गये। यानि जब चलन की 99.4 फीसदी मुद्रा बैंक में वापस आ गई फिर कालाधन कहां गया ? जिसके लिए यह कदम उठाया गया था ?

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सरकार कहती रही कि बैंकिंग सिस्टम के बाहर चार लाख करोड़ के आसपास कालाधन है, जिसे नोटबंदी के द्वारा खत्म करना सरकार का लक्ष्य था। इसलिए सवाल बनता है कि नोटबंदी, अर्थव्यवस्था से कालाधन निकालने में असफल क्यों हुई ? अब तो सुप्रीमकोर्ट में सरकार द्वारा प्रस्तुत रिकॉर्ड के अनुसार भी चलन की 98 फीसदी मुद्रा रिजर्व बैंक के पास वापस आ गई थी, फिर नोटबंदी अपने मकसद में सफल कैसे हुआ ?

सरकार बार-बार दावा करती है कि नोटबंदी के छह साल में देश में डिजिटल लेनदेन में जोरदार बढ़ोतरी हुई है। दूसरी ओर यह खबर है कि देश में 76 फीसदी परिवार अभी भी किराना सामानों की खरीदारी नकदी में कर रहा है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के 342 जिलों के 76 फीसदी लोग किराना, रेस्टोरेंट का बिल और फूड डिलीवरी का भुगतान नकदी में कर रहे हैं। फिर सरकार के दावे कहां हैं ? नोटबंदी की 2016 की रात 8 बजे प्रधानमंत्री ने रात 12 बजे से 1000 रुपए और 500 रुपए के नोट को डिमोनेटाइज यानी प्रचलन से बाहर करने का ऐलान किया था। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद 500 रुपए के नए नोट और 1,000 रुपए की जगह 2,000 रुपए का नोट जारी किया गया था। मगर हकीकत यह है कि काला धन जमा करने में सबसे ज्यादा इस्तेमाल 500 और 2000 के नोटों का होता है। फिर इसे दोबारा क्यों लाया गया ? और 1000 की जगह 2000 के नोट क्यों लाये गये ?

नोटबंदी के बाद कितना काला धन बरामद हुआ ? यह सवाल आज भी कचोटता है, क्योंकि इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला है। फरवरी 2019 में तत्कालीन वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में बताया था कि डिमोनेटाइजेशन सहित विभिन्न काला धन विरोधी उपायों से 1.3 लाख करोड़ रुपए के काले धन की रिकवरी हुई है। इसमें नोटबंदी से कितना है, यह अस्पष्ट है।

लिहाजा यह साफ है कि कालेधन को व्यवस्था से निकालने में नोटबंदी असफल रही है। इधर नोटबंदी के बाद से आमजन के पास ’कैश होल्डिंग’ यानि नकदी रखने की चाहत डेढ़ गुना से ज्यादा हो गई है। यहां तक की इलेक्ट्रिॉनिक्स, गहने, मकान-भवन जैसै संपत्तियों की खरीदारी तक में नकदी ज्यादा इस्तेमाल होने लगा है। मकान-भवन आदि की खरीदारी में तो खुलकर कालेधन का इस्तेामाल जारी है।

कुल मिलाकर नोटबंदी अपने पांच प्रमुख उद्देश्यों; अर्थव्यवस्था से कालाधन को खत्म करना, नकली नोटों को खत्म करना, बड़े नोटों को कम करना जिससे कालाधन जमा न हो सके, देश को कैशलेस बनाना यानि डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देना और कालेधन से पनपने वाले आंतकवादी एवं नक्सली गतिविधियों पर प्रहार करना यानि आतंकवादी एवं नक्सली संगठनों की कमर तोड़ना, में से डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देने के मकसद को छोड़कर शेष सारे उद्देश्य में असफल ही रही है।

(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)

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