जंगलों की विरासत सहेजते आदिवासी

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छत्तीसगढ़ के मैकल पहाड़ की तलहटी में बसे आदिवासी वन अधिकार पाने के लिए कोशिश कर रहे हैं। उनकी उम्मीदें राज्य में नई सरकार बनने से बढ़ गई हैं, जो स्वयं भी वन अधिकार देने की प्रक्रिया चला रही है। गांवों में जगह-जगह आदिवासी सामुदायिक वन अधिकार के लिए दावा कर रहे है।

बाबा मायाराम

छत्तीसगढ़ के मैकल पहाड़ की तलहटी में बसे आदिवासी वन अधिकार पाने के लिए कोशिश कर रहे हैं। उनकी उम्मीदें राज्य में नई सरकार बनने से बढ़ गई हैं, जो स्वयं भी वन अधिकार देने की प्रक्रिया चला रही है। गांवों में जगह-जगह आदिवासी सामुदायिक वन अधिकार के लिए दावा कर रहे है।

हाल ही मैंने बिलासपुर जिले के करपिहा,जोगीपुर,बैगापारा, मानपुर,  सरईपाली आदि कई गांवों का दौरा किया, जहां वन अधिकार कानून के तहत् सामुदायिक वन अधिकार पाने के लिए आदिवासी कोशिश कर रहे हैं। यह  इलाका अचानकमार अभयारण्य से लगा है। यहां मैंने प्रेरक संस्था ( राजिम, रायपुर) और विकासशील फाउंडेशन से जुड़े कार्यकर्ताओं के साथ क्षेत्र का दौरा किया। यह संस्था आदिवासियों को वन अधिकार देने की पहल में आदिवासियों की मदद कर रही है।

बैगा और गोंड आदिवासी यहां के बाशिन्दे हैं। बैगा विशेष पिछड़ी जनजाति में आते हैं। जंगल से उनका रिश्ता गहरा है। वे वनोपज एकत्र करने से लेकर, जंगल से बांस बर्तन बनाना, और जंगल से कई तरह के कांदा और हरी भाजियां, मशरूम, शहद आदि लेते हैं। इसी से उनकी आजीविका और जिंदगी चलती है।

बैगाओं की एक पहचान बेंवर खेती ( झूम खेती) से होती रही है। बेंवर खेती में हल नहीं चलाया जाता है। छोटी-मोटी झाड़ियां व पत्ते काटकर उन्हें बिछाया जाता है, सूखने पर उन्हें जलाया जाता है और फिर उस राख में बीज बिखेर दिए जाते हैं। जब बारिश होती है तो बीज उग जाते हैं। फसलें पक जाती हैं। बेंवर खेती में मिश्रित अनाज बोते थे। कुटकी, मड़िया, बाजरा, मक्का, झुरगा आदि। इन अनाजों के साथ दलहन और सब्जियां भी होती थीं। ये सभी पोषणयुक्त अनाज होते थे।  लेकिन अब बेंवर खेती कम हो गई है। अनाजों की जगह अब सिर्फ चावल ने ले ली है। हालांकि छत्तीसगढ़ में परंपरागत रूप से धान की 20 हजार से देसी किस्में हैं।

बैगापारा गांव के भुवन सिंह बैगा, मंगलूराम बैगा, फगनीबाई, रामबाई, सियाबाई और सोनिया ने बताया कि उनकी मुख्य आजीविका बांस के बर्तन बनाना है। झउआ, सूपा, बहरी ( झाडू), टोकनी, पंखा इत्यादि। ये लोग दूरदराज के जंगल से बांस लाकर बांस बर्तन बनाते हैं। इस काम के लिए पांच- छह घंटे पैदल चलकर जाना पड़ता है। इसमें झउआ 30 रूपए, सूपा 90 रूपए, बहरी 10 रूपए और टोकनी 25 रूपए में बिकती है। लेकिन एक तो बांस जंगलों में बहुत कम है, या बैगाओं के गांवों से बहुत दूर है।

वे आगे बताते हैं कि अक्टूबर-नवंबर में ही खेती का काम मिलता है, जब फसल कटाई होती है। बाकी समय खाली समय में बांस बर्तन बनाकर बेचते हैं। जंगल से कई तरह के कंद जैसे कनिहा कांदा, कड़ुकांदा, जिमी कांदा, तीखुर कांदा, बेचांदी कांदा, छिंद कांदा, मूसली कांदा, नेसला कांदा आदि मिलते हैं। इसी प्रकार चरौटा भाजी, कोयलार भाजी, बोहार भाजी आदि मिलती हैं।

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खेकसा, ठेलका, डूमर, इमली फल मिलते हैं। कई प्रकार के फुटू ( मशरूम) मिलते हैं। जड़ी-बूटियां जंगल में मिलती हैं। छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज बैगा इन्हीं जड़ी बूटियों से करते हैं। ये बैगा अब जंगल में सामुदायिक अधिकार के लिए दावा कर रहे हैं, जिससे उनका जीवन चलता रहे।

गोंड आदिवासी भी यहां बड़ी संख्या में हैं। बैगाओं से इनकी जीवनशैलील कुछ अलग है। गोंड आदिवासी खेती करते हैं। जोगीपुर गांव के गांववासी भी वन अधिकारों के लिए प्रयासरत हैं। यहां के पंचराम नेताम, चतुरसिंह, फागूराम मरकाम और अगनसिंह मरकाम बताते हैं कि एक समय में उनके जोगिया पहाड़ का जंगल अच्छा था। बारिश भी अच्छी होती थी। पानी भी भरपूर था। वहां जोगिया बाबा की पूजा होती थी। नवरात्र में चहल पहल होती थी, पूजा तो अब भी होती है। लेकिन अब वैसा जंगल नहीं रहा। लेकिन अगर उसे बचाने-बढ़ाने की कोशिश की जाए तो यह जंगल पहले जैसा ही हो जाएगा। बीच में वन सुरक्षा समितियों ने इसके संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया। अगर गांववालों को सामुदायिक अधिकार मिले तो यह जंगल भी अच्छा होगा, परंपरागत पानी स्रोत भी खुलेंगे। लोगों का निस्तार भी होगा।

शिवतराई के आश्रित गांव सरईपाली की आदिवासी महिलाएं एकजुट होकर वन अधिकार पाने की लड़ाई में आगे हैं। इस गांव की आबादी 500 के करीब है। यहां गोंड आदिवासी हैं। यहां के जंगल में महुआ और आम हैं। जंगल भी पहले बहुत अच्छा था, कम हुआ है, पर अभी भी है। आदिवासी महिलाओं ने कहा जंगल बचाना और बढ़ाना बहुत जरूरी है। इसी से उनकी जिंदगी चल और बच सकती है।

यहां महुआ पेड़ के बारे में बताना जरूरी है। आदिवासियों में इस पेड़ का काफी महत्व है। वे इसकी पूजा करते हैं। इसके अलावा इसके फूल को खाते हैं, फल की भी सब्जी बनती हैं। इसके बीज से तेल पिराया जाता है, जिसे वे खाने के रूप में इस्तेमाल करते हैं। फूल को सुखाकर लड्डू बनाए जाते हैं। रोटी भी बनती है। महुआ के साथ तिल मिलाकर उसके लडडू बनाए जाते हैं। महुआ लाटा भी बनाया जाता है। इस तरह एक जमाने में महुआ आदिवासियों का प्रमुख भोजन हुआ करता था। इसकी लकड़ी घर बनाने के काम आती है।

जंगल और आदिवासियों का सह अस्तित्व सैकड़ों सालों से रहा है। वे पीढ़ियों से जंगल में रहते आए हैं। जंगल से उनका गहरा रिश्ता है। जंगल के बिना उनकी जिंदगी नहीं चल सकती। आदिवासी उतना ही लेते हैं, जितनी उनकी जरूरत है। प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर आदिवासी रहते आए हैं।

प्रकृति के साथ उनका सह अस्तित्व है। जंगल, जंगली जानवर और आदिवासी साथ साथ रहते आए हैं। जंगल उन्हें कई तरह के खाद्य पदार्थ  जैसे कंद, हरी सब्जियां, मशरूम, शहद, फल, फूल गोंद, चारा, ईंधन आदि देता है। मधुमक्खी के छत्ते से लेकर पेड़ पौधों और जड़ी बूटी के गुणधर्म की जानकारी है, पहचान है।  बैगा तो जड़ी-बूटी के अच्छे जानकार माने जाते हैं। इसलिए उन्हें बैगा कहा जाता है।

आदिवासियों की जंगल  से जुड़े परंपरागत ज्ञान की समृद्ध विरासत है। वे जंगल के जानकार हैं। मौसम आधारित भोजन जो जंगल से प्राप्त होने वाले गैर खेती खाद्य  से जुड़ा है, की विशेष जानकारी रखते हैं।

जलवायु बदलाव के इस दौर में जंगल के खाद्य पदार्थ आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। उन्हें पोषणयुक्त भोजन मिलेगा। साथ ही जंगल के संरक्षण से मिट्टी-पानी का संरक्षण भी होगा। जैव विविधिता व पर्यावरण का संरक्षण भी होगा। लेकिन उन्हें अब तक इस जमीन का अधिकार नहीं मिला है। वन अधिकार कानून 2006 के तहत् यह अधिकार मिलने जा रहा है,जिससे आदिवासियों की आंखों में चमक आ गई है।

लेखक बाबा मायाराम  स्वतंत्र पत्रकार हैं|  वे सामाजिक सरोकारों से जुड़े कई मुद्दों पर्यावरण, खेती-किसानी, विकास, आदिवासी, महिला और बच्चों आदि पर विगत 25 वर्षों से लिख रहे हैं।)

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