लोभ: जब कामना या आसक्ति लोभ नहीं मानी गई

मानसिक विकारों में लोभ सर्वाधिक खतरनाक मनोभाव है।  पौराणिक ग्रंथों में कई उदाहरण दिये गये है। जिनसे स्पष्ट होता है कि लोभ किसे कहें अथवा किसे न कहें । जब कामना या आसक्ति लोभ नहीं मानी गई | 

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मानसिक विकारों में लोभ सर्वाधिक खतरनाक मनोभाव है।  पौराणिक ग्रंथों में कई उदाहरण दिये गये है। जिनसे स्पष्ट होता है कि लोभ किसे कहें अथवा किसे न कहें । जब कामना या आसक्ति लोभ नहीं मानी गई |

मानसिक विकारों में लोभ सर्वाधिक खतरनाक मनोभाव है। श्रीमद भागवत गीता में भी इसका उल्लेख किया गया है कि रजोगुण जब पतन की ओर अग्रसर होता है तब वह लोभ का ही आश्रय लेता है क्योंकि रजोगुण में लोभ सर्वाधिक शक्तिशाली होता है तब वह मानस को विषाक्त करता है।

वैसे तो लोभ का क्षेत्र अत्यन्त विशाल है किन्तु लोभ का वह क्षेत्र जो विवेक को नष्ट कर मतिभ्रम की स्थिति उत्पन्न कर मानव को अकरणीय के लिये बाध्य करें वह तो अत्यन्त विध्वंसक होता है। यहाँ यह भी स्पष्ट करना प्रासंगिक होना कि सतोगुणी की प्रशंसा, प्रसिद्धि व उपलब्धि के रूप में अनजाने ही लोभ से मुक्त नही हो पाते।

इसका स्पष्ट अर्थ है कि मात्र अनासक्ति, अकाम, अक्रोध की स्थिति को ही हम लोभ से मुक्त नहीं मान सकते किन्तु स्थित प्रज्ञता ही एक स्थिति है जिसमें लोभ के लिये कोई स्थान नहीं है किन्तु यह इतना सहज व सरल कदापि नहीं हैं क्योंकि स्थित प्रज्ञता योग की चरमावस्था है। अतः सामान्य मानव के लिये इस स्थिति को प्राप्त करना असंभव तो नहीं किन्तु अत्यन्त कठिन है।

मन की दो स्थितियां होती है। चेतन और अवचेतन। इन दोनों पर लोभ का प्रभाव होता है। चेतन मन का लोभ सामान्य व्यक्ति की कामना की तरह होता है जिसके लिये वह प्रत्यक्ष संघर्ष करता हुआ क्रियाशील दिखता है। इसका प्रभाव भी सीमित होता है किन्तु अवचेतन मन का लोभ महा विध्वंसक तथा विनाश कारी होता है इस लोभ में कामना प्राप्ति के लिये कुटिल षडयंत्र होता है जिसका प्रभाव सब पर पड़ता है।

लोभ में व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो जाता है तथा लोभ का वस्तु या कारक उसके लिये सर्वोपरि बन जाता है। इस वस्तु की प्राप्ति के लिये सुख, दुख, मान, अपमान, सामाजिक प्रतिष्ठा यहाँ तक की उसका स्वयम का व्यक्तित्व भी अर्थ के औचित्य से चूक जाता है। स्वाभीमान की भावना तो उसमें तनिक भी नहीं रह जाती।

व्यक्ति के लिये सामाज में रोटी कपड़ा और मकान ही सभी कुछ नही होता। निम्न से निम्न व्यक्ति भी समाज में प्रतिष्ठा और पहचान चाहता है किन्तु लोभ व्यक्ति की इस भावना को भी समाप्त कर देता है।

संभवतया तभी ऐसे लोभी व्यक्ति के लिये चिंतामणि में पं. रामचंद्र शुक्ल ने सटीक चोट करते लिखा है “लोभियों तुम्हारा अक्रोध तुम्हारा इन्द्रिय निग्रह, तुम्हारा मानापमान समता, तुम्हारा तप अनुकरणीय है। तुम्हारी निष्ठुरता, तुम्हारी निर्लज्जता, तुम्हारा अविवेक, तुम्हारा अन्याय विग्रहणीय है। तुम धन्य हो। तुम्हें धिक्कार है” इन पंक्तियों में लोभियों के समस्त लक्षणों व गुणों को स्पष्ट कर दिया गया है।

पौराणिक ग्रंथों में कई उदाहरण दिये गये है। जिनसे स्पष्ट होता है कि लोभ किसे कहें अथवा किसे न कहें । सामान्यतया किसी वस्तु विशेष की प्राप्ति चाहे वह किसी भी विधि से क्यों न हो, को लोभ माना गया है।

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विश्वामित्र एक शक्तिशाली राजा थे। महर्षि वशिष्ट के आश्रम में एक दिन वे अनेकों सैनिको एवं मंत्रियों के साथ उनके प्रति भक्ति भाव प्रकट करने गये। ऋषि वशिष्ठ ने समस्त का आत्मीय स्वागत तो किया ही साथ ही भोजन के लिये भी आग्रह किया|

विश्वामित्र ने विनीत स्वर में कहा ‘ब्रम्हर्षि आप क्यो अनावश्यक कष्ट उठाने की बात कर रहे है। आश्रम में इतने लोगों का भोजन कराने का भार आप पर डालना कदापि उचित नहीं है किन्तु महर्षि वशिष्ट के आग्रह को वे अस्वीकार भी नहीं कर सकते थे।

ऋषि वशिष्ट ने उन्हें अल्प समय में वह भोजन कराया कि विश्वामित्र चकित रह गये। वे जिज्ञासा वश प्रश्न कर बैठे कि महर्षि वशिष्ट के लिये यह सब संभव कैसे हो सका। ऋषि वशिष्ट ने अपनी गाय नंदनी को इसका श्रेय दिया।

विश्वामित्र ने नंदिनी गाय की ही मांग कर दी एवज में सहस्त्रों गाय देने की बात भी कही किन्तु ऋषि वशिष्ट ने विनम्रता से प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। इससे राजा विश्वामित्र के अहम को ठेस लगी। उन्होंने किसी भी मूल्य पर नंदिनी को प्राप्त करने का मन बना लिया। फिर तो दोनों में भारी टकराव हुआ।

राजा विश्वामित्र ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता झोंक दी। यहां तक की महर्षि वशिष्ट पर दिव्यास्त्रों का भी प्रयोग किया किन्तु महर्षि वशिष्ट का न तो अहित कर सके और न ही नंदिनी को प्राप्त कर सके।

विश्वामित्र के समक्ष एक ही लक्ष्य था नंदिनी की प्राप्ति। उन्होंने राजपाट त्याग दिया तपस्या पर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। ऋषि पद तो उन्होने प्राप्त कर ली किन्तु नंदिनी प्राप्त नहीं कर सके।

विश्वामित्र का नंदिनी के प्रति कामना या आसक्ति प्रबलता थी तब इसे विश्वामित्र का नंदिनी के प्रति लोभ माना जाना चाहिये था किन्तु धर्मग्रंथों में विश्वामित्र के इन प्रयासों व कामना को लोभ नही माना गया है। इसे राजहठ की श्रेणी में रखा गया है।

स्पष्ट है कि यदि कोई वस्तु की कामना आत्म सम्मान अथवा महत्वाकांक्षा के चलते की जाये तो वह लोभ नही है। नंदिनी के प्रति विश्वामित्र की कामना इसलिये थी क्योंकि वे राजा थे। तथा उनके मन में ऐसी दुर्लभ, अलौकिक कामधेनु गाय नंदिनी राज्य की अमानत होनी चाहिये। विश्वामित्र तथा महर्षि वशिष्ट दोनों अपने अपने क्षेत्र में महान थे। नंदिनी के प्रति स्पर्धा दो महान व्यक्तियों के मध्य टकराव का कारण बनी इसे लोभ नही कहा जा सकता।

छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे  में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिवशंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा  निबंध  लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं। ‘विकार-विमर्श” निबंध संकलन 44 स्वाधीन चिंतन परक, उदान्त एवं स्थायीभावों का सरस सजीव गद्यात्मक प्रकाशन है। प्रौढ़ चिंतन, सूक्ष्म विश्लेषण एवं तर्कपूर्ण सुसम्बद्ध विवेचन एवं मनोविकारों का स्वरूप निर्धारण उनका रुपान्तरण आवश्यकता आदि पर पटनायक जी का चिंतन दर्शनीय है| deshdigital  इन निबंधों का अंश  उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |

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