आत्महत्या का अमरबेल: राजनीति का अखाड़ा बनते जा रहे हैं महाविद्यालय

सरकार के सर्मथकों, नुमांइदों, एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों के प्रवक्ताओं एवं समर्थकों द्वारा उच्च  शिक्षा के केन्द्र महाविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया है।

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सरकार के सर्मथकों, नुमांइदों, एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों के प्रवक्ताओं एवं समर्थकों द्वारा उच्च  शिक्षा के केन्द्र महाविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया है। हर छोटी-छोटी बातों के लिए महाविद्यालय के प्रशासकों, प्राचार्यों एवं प्रोफेसरों पर दबाव बनाकर काम करने नहीं दिया जा रहा है। हर काम का टेण्डर इन्हीं को मिलना चाहिए, हर चीज इनकी जानकारी में होनी चाहिए। यदि नहीं हुआ तो उपर से फोन, आरटीआई, धमकी, ट्रांसफर का भय। कहां से एवं कैसे काम करेगा प्राचार्य ?

-डॉ. लखन चौधरी

आत्महत्या का अमरबेल: विवेचना एवं पड़ताल की दरकार (3)

छत्तीसगढ़ शासन के उच्च शिक्षा विभाग की कार्यसंस्कृति एवं कार्यशैली की इस विवेचना एवं  विश्लेषण में इस बात की चर्चा भी जरूरी है कि राज्य में उच्च शिक्षा के विस्तारीकरण के नाम पर छोटी-छोटी जगहों पर महाविद्यालय खोल दिये जा रहे हैं, जहां ठीक से पहुंच मार्ग भी नहीं रहती हैं। इन स्थानों में उच्च शिक्षा के लिए साधन, संसाधन, सुविधाएं कुछ नहीं हैं।

स्थानीय स्कूलों के बेकार पड़े जगहों, कुछ कमरों पर महाविद्यालय संचालित किये जा रहे हैं, जहां कोई सुविधाएं नहीं रहती हैं। न प्रोफेसर, न कर्मचारी, न संसाधन, न भवन, न पुस्ताकालय, न प्रयोगशाला, मगर विद्यार्थियों को प्रवेश  देकर परीक्षाएं ली जा रही हैं।

राज्य के सैकड़ों महाविद्यालयों की यह स्थिति है। कुछ सालों बाद भवन बना दिया जाता है, लेकिन पढ़ाने वाले प्रोफेसर की व्यवस्था इन महाविद्यालयों के भाग्य में नहीं है। जब स्थानीय स्तर पर भारी मांग उठती है तो आसपास के महाविद्यालयों से प्रोफेसरों की व्यवस्था तात्कालिक तौर पर कर दी जाती है, मगर कुछ ही महिनों बाद उनका स्थानांतरण हो जाता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

ग्राम पंचायत स्तर के छोटे-छोटे गांवों में महाविद्यालय खोलने से स्थानीय विद्यार्थी वहीं प्रवेश  लेकर डिग्री हासिल कर ले रहे हैं, लेकिन इन छात्र-छात्राओं के ज्ञान, कौशल, अनुभव में किसी भी तरह की वृद्धि नहीं हो पा रही है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि इन ग्रामीण क्षेत्र के विद्यार्थियों के पास डिग्री है, लेकिन कोई हुनर नहीं है, लिहाजा इस प्रतिस्पर्धी बाजारवाद की दुनिया में कहीं टिक नहीं पा रहे हैं।

रोजगार के लिए भटक रहे हैं, मगर चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल पा रही है। इनका इतना हुनर, अनुभव नहीं है, या इनमें इतनी काबिलियत नहीं है कि स्वयं का कोई स्वरोजगार खड़ा कर सकें। कभी कभार सरकारी पैसे से कोई काम शुरू भी कर लेते हैं तो उसको आगे चला नहीं पाते हैं। कुछ ही दिनों में सब बंद हो जाता है। बैंक का पैसा डूब जाता है, डूब रहा है, वह अलग मामला है।

इधर सरकार उच्च  शिक्षा के प्रचार-प्रसार एवं विस्तारीकरण एवं लोगों को उच्च शिक्षित बनाने की दंभ भर रही है। यह स्थिति केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं है, इस समय पूरे देश  में यही हालात हैं। डिग्री बांटने के इस खेल को न तो विद्यार्थी समझ पा रहे हैं, न उनके पालक एवं अभिभावक और दुर्भाग्यपूर्णं बात तो यह है कि इस राजनीति को लोकतंत्र के प्रहरी जनप्रतिनिधि तक समझ नहीं पा रहे हैं।

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वोट बैंक के इस खेल में उच्च शिक्षा दम तोड़ चुकी है। उच्च शिक्षा में शिक्षा, ज्ञान, कौशल, हुनर, अनुभव, साहस कुछ नहीं बचा है, सिर्फ डिग्री बची है।

सरकार के सर्मथकों, नुमांइदों, एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों के प्रवक्ताओं एवं सर्मथकों द्वारा उच्च  शिक्षा के केन्द्र महाविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया है। हर छोटी-छोटी बातों के लिए महाविद्यालय के प्रशासकों, प्राचार्यों एवं प्रोफेसरों पर दबाव बनाकर काम करने नहीं दिया जा रहा है। हर काम का टेण्डर इन्हीं को मिलना चाहिए, हर चीज इनकी जानकारी में होनी चाहिए। यदि नहीं हुआ तो उपर से फोन, आरटीआई, धमकी, ट्रांसफर का भय। कहां से एवं कैसे काम करेगा प्राचार्य ? मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे सैकड़ों महाविद्यालयों के प्राचार्यों एवं उनकी इस स्थिति को जानता हूं।

नंदनी-अहिवारा के महाविद्यालय के प्राचार्य द्वारा इसी तरह के दबावों एवं तनावों के चलते खुदकुशी की गई है। यह बात उनके परिवार के सदस्यों द्वारा कही जा रही है। इस मामले में ताज्जुब की बात यह है कि उनके सुसाइड नोट में जिन तीन प्रोफेसरों के सरनेम का उल्लेख आ रहा है, उन्हीं के द्वारा इस तरह की धमकी, प्रताड़ना, ट्रांसफर का भय दिखाने, काम नहीं करने, समय पर महाविद्यालय नहीं आने की बातें सामने आ रही हैं। यदि इस तरह की स्थितियां बनती हैं तो प्राचार्य कहां पर टिक सकते हैं ? कैसे काम कर सकते हैं ?

उपर से मंत्रालय, सचिवालय एवं विश्वविद्यालयों  द्वारा कागजी जानकारियां इतनी मंगायी जाने लगी हैं कि अध्ययन-अध्यापन तो दूर की बात है, इन जानकारियों को ही भेजने में प्राचार्यों के पसीने छूट रहे हैं। साधन, संसाधन, कर्मचारी, प्रोफेसर, इंटरनेट के अभाव एवं असहयोग में प्राचार्य क्या कर सकते हैं ? डॉ. भुवनेश्वर  नायक के साथ भी यही हुआ है।

यह बहुत गंभीर एवं दुर्भाग्यपूर्णं है कि राज्य में इस तरह की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं, लेकिन सरकार या विभागीय मंत्री द्वारा इन पर कोई संज्ञान ही नहीं लिया जा रहा है लिहाजा उच्च शिक्षा के केन्द्र राजनीति के चरागाह में तब्दील होते जा रहे हैं।

क्रमशः

(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)

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