भय जब आक्रामक हो जाता है

कोई भी मानसिक भाव अथवा विकार हो, केन्द्र स्थल तो शरीर होता है। अतः शरीर की महत्ता के लिये जहां अत्यधिक महत्वपूर्ण है वही इसका अंत अर्थात मृत्यु सर्वाधिक दुखद पहलू है। अतः भय अपने चरम मे जीवन में संकट के रूप मे मृत्यु को देखता है तो भय का मूल स्वभाव ही बदल जाता है

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कोई भी मानसिक भाव अथवा विकार हो, केन्द्र स्थल तो शरीर होता है। अतः शरीर की महत्ता के लिये जहां अत्यधिक महत्वपूर्ण है वही इसका अंत अर्थात मृत्यु सर्वाधिक दुखद पहलू है। अतः भय अपने चरम मे जीवन में संकट के रूप मे मृत्यु को देखता है तो भय का मूल स्वभाव ही बदल जाता है अर्थात कायरता, वीरता में बदल जाती है । यह भय की आक्रमकता है। वैसे भय तो साहस विहीन होता है अतः उसकी आक्रमकता की कल्पना करना भी अटपटा लगता है। किन्तू यह सत्य है ।

भय

मनोभावों एवं विकारों में भय को सर्वाधिक निकृष्ट माना गया है। वैसे आध्यात्मिक ग्रंथों में यह भी लेख है कि मनोविकारों की विकृत अनुभूति भय के रूप में प्रकट होती है। व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा मत्सर से युक्त होकर अपनी चेतना को अंधकार मय कर लेता है। उसे किसी भी अनिष्ट की कल्पना नहीं रहती। वस्तुत: वह तो सोचने की स्थिति में ही नहीं रहता कि उसके द्वारा किये जा रहे कार्य व्यवहार तथा क्रिया के परिणाम क्या होगें किन्तु अवचेतन जो अन्तस के निकटतम माना गया है भय के रूप में प्रतिक्रिया व्यक्त करता है अतः चिंतक मनोविकारों की छाया के रूप में भय को देखते है।

श्रीमदभागवत गीता में लिखा है “तीनों कालों की सुरक्षा के लिये व्यक्ति ने तीन शत्रुओं का चयन किया है। भूत के लिये क्रोध करता है। भविष्य के भय से मुक्त होने के लिये वह लोभ का आश्रय लेता है। वर्तमान में आनन्द अनुभूति के लिये वह काम का वरण करता है।” इससे तो यही स्पष्ट होता है कि प्रत्येक व्यक्ति मनोविकारों से ग्रस्त है, भविष्य के लिये चिंतित होता है।

इसलिये वह लोभ का संवरण नहीं कर पाता तथा सांसारिक दलदल में धंसता चला जाता है। सुखद भविष्य की कामना में वह लोभ रूपी मकड़ी का जाल इस रूप में बुनता है कि स्वयम फंसकर नष्ट हो जाता है। भविष्य में का भय उसके अस्तित्व को ही मिटा देता है।

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भय का एक प्रमुख कारण अज्ञानता है जिसके चलते व्यक्ति वास्तविकता को न समझते हुए किसी वस्तु या तथ्य के प्रति भय का अनुभव करता है। अनुभव करना एक मानसिक स्थिति है। अतः मन पर उसका प्रभाव अत्यधिक पड़ता है जिससे उसकी दृढता कम हो जाती है। प्रागेतिहासिक काल या उसके पूर्व लोग, यह समझ ही नहीं पाते थे कि बादल क्यों गरजते है? बिजली क्यों कडकती है ? या पृथ्वी में कंपन क्यों होता है? अर्थात प्राकृतिक घटनाओ से वे चमत्कृत थे। वे इसे ईश्वरीय कोप मानते थे। अत: उनमें इनके प्रति भय उत्पन्न होता था। वे इन घटनाओं से असामान्य हो जाते थे। तथा उन्हें प्रतीत होता था कि उनका जीवन इनके कारण संकट में पड़ सकता है। अतः उन्होनें इन्हें प्रसन्न करने के लिये पूजा अर्चना करने की विधि का विकास किया। इन्हें प्रणाम करना आरम्भ किया और उन्होंने अनुभव किया कि इस प्रक्रिया में उनमें मानसिक शांति तो आ रही है साथ ही उनमें भय का भाव भी न्यून हो रहा है।

यह अज्ञानता जैसे जैसे दूर होती गई मानव सभ्यता बढती गई तथा शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ। ज्ञान ने प्राकृतिक चमत्कारों पर से रहस्य का परदा हटा दिया अत: वास्तविकता ने उसे मानसिक दृढता प्रदान की जिसमें भय के लिये कोई स्थान नहीं था। मनुष्य की इस मूल प्रवृति को दृष्टिगत रख कर ही कहा गया है “भय बिनु होई न प्रीत”। भय का गुण है कि वह है अपनी रक्षा के लिये हमेशा प्रीति का अवलम्बन कर अपने को सुरक्षित समझता है।

भय दोनों रूप में प्रकट होता है बाहय रूप में तथा आंतरिक रूप में। बाहय भय को देखा या अनुभव किया जा सकता है। किन्तु व्यक्ति के आंतरिक भय को वह स्वयम अनुभव करता है तथा जब वह इससे प्रभावित होकर कोई क्रिया करता है तो वह देखा या अनुभव किया जा सकता है।
संत श्री तुलसीदास जी ने लिखा है “अतिशय रगड़ करे जो कोई अनल प्रकट चंदन ते होई”। यह चरमावस्था की स्थिति है जब शीतल चंदन भी अत्यधिक रगड़ पर अग्नि उत्पन्न कर देता है अर्थात किसी भी वस्तु या भाव का चरम उसके स्वरूप को एकदम पलट देता है ।

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भय की भी यही स्थिति होती है। कोई भी मानसिक भाव अथवा विकार हो, केन्द्र स्थल तो शरीर होता है। अतः शरीर की महत्ता के लिये जहां अत्यधिक महत्वपूर्ण है वही इसका अंत अर्थात मृत्यु सर्वाधिक दुखद पहलू है। अतः भय अपने चरम मे जीवन में संकट के रूप मे मृत्यु को देखता है तो भय का मूल स्वभाव ही बदल जाता है अर्थात कायरता, वीरता में बदल जाती है । यह भय की आक्रमता है। वैसे भय तो साहस विहीन होता है अतः उसकी आक्रमकता की कल्पना करना भी अटपटा लगता है। किन्तू यह सत्य है ।

एक कमरे में बिल्ली घूस गई है। व्यक्ति उसे डरा कर भगाना चाहता है बिल्ली भय में है तथा भागने का मार्ग दिखाई नही दे रहा है। व्यक्ति हाथ मे डंडा लेकर उसे भगाने के लिये शोर कर रहा है। एकाएक बिल्ली व्यक्ति पर ही आक्रमण कर देती है। उसकी आंखों में क्रोध की चिनगारी दिखने लगती है। व्यक्ति पर बिल्ली का प्रति आक्रमण बिल्ली के भय की चरमावस्था है।

भय जन्य अनिष्ट की आशंका व्यक्ति को आश्चर्य जनक रूप से अतिरिक्त साहस प्रदान करती है। ताकि भय से मुक्त होकर वह अपने अस्तित्व की रक्षा कर सके। वैसे भय की मूल प्रवृति मानस को काल्पनिक संशय से भर देता है। भयजन्य वह संशय मानस की सकारात्मक क्रियाशीलता को नष्ट न भी कर सके तो शिथिल अवश्य कर देता है।

इसका प्रभाव यह होता है कि अर्थ और तथ्यहीन भय जन्य कल्पना व्यक्ति को यथार्थ प्रतीत होने लगता है जिससे उसमें आगे बढ़ने के स्थान पर पलायन की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। तभी तो कहा गया है “डर के आगे जीत है” अस्तित्व की रक्षा के लिये व्यक्ति को भय के आगे जाना ही होगा । मन का शाश्वत भाव ही व्यक्ति को भय से मुक्त कर सकता है। अर्थ स्पष्ट है कि व्यक्ति को भय से मुक्ति के लिये स्वयम पर ही आश्रित रहना होना क्योंकि यह विशुद्ध रूप से आतंरिक है।

भय, भय,भय, सबको भय है। व्यक्ति, समाज, राज्य तथा राष्ट्र अपने भय की मुक्ति चाहता है। सुरक्षा चाहता है। राष्ट्र काल्पनिक भय से ग्रसित होकर शिक्षा, स्वास्थ्य, तथा विकास के मद की राशि से पूंजीवादी राष्ट्र के घिनौने षडयंत्र से बेखबर एक से बढ़कर एक खतरनाक हथियार खरीद रहे है। बड़ी उदारता से ये पूंजीवादी राष्ट्र उधार में अपना हथियार तथा अन्य युद्धोपयोगी सामान धड़ल्ले से दे रहे है। भय के नाटक का परदा पाश ना हो जाये अत: पड़ोसी देशों में ये अपने एजेन्टो के द्वारा छिटपुट आक्रमण भी करा देते है या एक सम्प्रदाय के लोगो पर बम या गोलियां चलवा देते है। भय का वातावरण बना रहता है। भय में इतनी क्षमता कहां होती है कि वह वास्तविकता की ओर मुंह करने का साहस कर सकेा व्यक्ति, राज्य या राष्ट्र कायरों की तरह आचरण करने लगे है क्योंकि भय पुंसत्व नहीं  कायरता ही तो देता है।

 

छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे  में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिवशंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा  निबंध  लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं। ‘विकार-विमर्श” निबंध संकलन 44 स्वाधीन चिंतन परक, उदान्त एवं स्थायीभावों का सरस सजीव गद्यात्मक प्रकाशन है। प्रौढ़ चिंतन, सूक्ष्म विश्लेषण एवं तर्कपूर्ण सुसम्बद्ध विवेचन एवं मनोविकारों का स्वरूप निर्धारण उनका रुपान्तरण आवश्यकता आदि पर पटनायक जी का चिंतन दर्शनीय है| deshdigital  इन निबंधों का अंश  उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |

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