तुम तो मधु लिमए हो महुआ 

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करीब डेढ़ साल पहले मैंने सांसद महुआ मोइत्रा पर एक लेख लिखा था जब उन्होंने लोकसभा में पहली बार अपना तेजतर्रार भा ण दिया था। महुआ के तेवर जस के तस हैं जो अभी लोकसभा में फिर उनकी तकरीर में देखने मिला। –कनक तिवारी 
तुम तो मधु लिमए हो महुआ 
 एक भौंचक सरकार को अंगरेजी भाषा सरिता में चप्पू चलाती सांसद ने तर्क और तथ्य के दोहरे आक्रमण में फंसाकर पूछा जिसका जवाब ‘मोदी है तो मुमकिन है‘ के नारे में नहीं दिया जा सकता। 120 सरकारी नुमाइंदे हैं जो सूचना प्रसारण मंत्रालय में बैठकर हिन्दुस्तान की मीडिया के सेंसर अधिकारी हों। उनके आदेश, निर्देश और समीक्षा के बाद ही मीडिया में खबरें तराशी, खंगाली और छापी जाती हैं। देश की अवाम की दौलत का केवल एक पार्टी और एक नेता के लिए दुरुपयोग हो रहा है।
देश के चुनिंदा काॅरपोरेटी ही मीडियामुगल हैं। सत्ता और संपत्ति के गठजोड़ का खुला खेल चल रहा है। उसकी परत परत नोचकर महुआ ने संसद को अभियुक्त भाव से आंज भी दिया। यह मार्मिक सवाल पूछा कि देश की सेना तो देश की सेना है। वह एक व्यक्ति की सेवा में चुनाव प्रचार का एजेंडा कैसे बन सकती है।
चाहे कुछ हो निराशा का एक बादल तो उनके भाषण से छंटा। एक लोकसभा सदस्य ने पूरी लोकसभा को उसके इतिहास, संगठन, मकसद और भविष्य का साफ सुथरा आईना दिखा दिया। यह तो वह भाषण है जिसने मार्क एंटोनी भले न हो, मधु लिमये, हीरेन मुखर्जी, नाथ पई, हेम बरुआ, सोमनाथ चटर्जी और राममनोहर लोहिया की एक साथ याद दिला दी।

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 मौजूदा लोकसभा का भारी भरकम सत्ता पक्ष केवल संख्या बल के आधार पर ही अपना कीर्तिमान स्थापित नहीं कर सकता। कई नए तनाव जबरिया उठाए जा रहे हैं। सरकार के मुख्य घटक भाजपा की पूरी नीयत और ताकत जवाहरलाल नेहरू के रचे लोकशाही के एक एक अवयव पर सैद्धांतिकता की आड़ में निजी हमला करने की है।
महुआ ने भी राजस्थान के पहलू खान और झारखंड के तबरेज अंसारी का नाम लेकर माॅब लिंचिंग की ओर अपनी आवेशित करुणा के जुमले में हमला किया। हैरत की बात है प्रधानमंत्री को अशोका होटल में भोज के वक्त या बिहार के स्वास्थ्य मंत्री को विश्व कप में भारत के खिलाडी रोहित शर्मा की बल्लेबाजी पर खुश होकर तालियां बजाते वक्त बिहार के मुजफ्फरपुर में 200 से भी ज्यादा बच्चों के सरकारी बदइंतामी के फलवरूप मर जाने पर भी अफसोस करते नहीं सुना देखा गया।
महुआ मोइत्रा देश के लिए दिए गए बंग-संदेश में भारतीय नवोदय के अशेष हस्ताक्षरों राजा राममोहन राय, रवींद्रनाथ टैगोर, काज़ी नजरुल इस्लाम, विवेकानन्द और सुभाष बोस आदि की सामूहिक संकेतित अनुगूंज थी। तब भी हिन्दुस्तान की संसद में आधे से ज्यादा चार्जशीटेड सदस्य देश की रहनुमाई कर रहे हों यही पेचीदा सवाल महाभारत में उठाए गए यक्ष प्रश्नों के मुकाबले कहीं अधिक तकलीफदेह हैै।
सांसद मोइत्रा ने बहुत कम समय मिलने के बावजूद अपनी विज्ञान और गणित की छात्र जीवन की डिग्रियों और अनुभवों से लैस होकर देश के समाने आई मुश्किलों को सात सूत्रों में बताने की कोशिश की। यह साफ है कि अवाम को तकलीफ दे रही मुसीबतों की संख्या नहीं होता। उसका घनत्व और परिणाम होता है।
भारतीय और अन्य संस्कृतियों में सात का आंकड़ा तरह तरह से रेखांकित होता रहा है। उसे भी किसी गणितीय संख्या की तरह स्थिर करने के उद्देश्य से ईजाद नहीं किया गया होगा। हिन्दू विवाह के सात फेरे हों या सात वचन। आकाश के सात तारे हों। साल के सात दिन हों। सात समंदर हों। दूसरी संस्कृति में सात पाप हों। या किलों के सात दरवाजे कहे जाते रहे हों। ये यब लोकजीवन की खोज हैं। उनमें संख्या का महत्व नहीं है। उसके पीछे दर्शाए गए हेतु का महत्व होता है।
महुआ मोइत्रा के भाषण में हिन्दुस्तान के अवाम की वेदना की कहानी शब्दों के साथ साथ उनकी आवाज के उतार चढ़ाव, चेहरे पर उग रहे तेवरों के झंझावातों के साथ हिलकोले खा रही थीं। पूरे सदन में सत्ताधारी पार्टी के प्रधानमंत्री सहित नए सांसदों और पुराने दिग्गजों ने तार्किक मुकाबला करने की कोशिश तो की लेकिन जो पैनापन भारतीय जनता की तकलीफों की आह से उठता हुआ तृणमूल कांग्रेस की युवा सांसद के ऐलान में समा गया था। वह एक तरह से हिन्दुस्तानियत का यादनामा बनकर उभरा है।
(गांधीवादी विचारक लेखक, छत्तीसगढ़ के पूर्व महाधिवक्ता कनक तिवारी का फैसबुक पोस्ट )

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