किसान बंधुओं! मैं आप में ही हूं!

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 आज सत्य, अहिंसा और भारतीय आजादी के आंदोलन के महानायक की एक और पुण्यतिथि है। यह संयोग है कि आज महात्मा की पुण्यतिथि के दो माह पहले शुरू हुआ भारत के इतिहास का सबसे बड़ा किसान आंदोलन अपने शबाब पर है। उसे अंगरेजों से भी ज्यादा कड़ियल निजाम से सत्याग्रह के रास्ते चलने पर भी मुकाबला करना पड़ रहा है। यह भी सही है कि काॅरपोरेटियों द्वारा नियंत्रित मीडिया बेहद संकीर्ण विचारों की सरकार और सदियों से गुलाम रहे गरीब, अशक्त, अशिक्षित, दुर्भाग्यशाली देशवासियों से कहीं ज्यादा पढ़े लिखे पश्चिमी सभ्यता में रंगे हुए अमीर और शुतुरमुर्ग प्रवृत्ति के तथाकथित शहरियों द्वारा महान किसान आंदोलन द्वारा देश में नफरत का माहौल उगाया जा रहा है। तब सबको गांधी की शहादत की याद आती है। आज गांधी उन्हें समझा रहे हैं कि भीड़ के बहुमत को लोकतंत्र नहीं कहते।
-कनक तिवारी 
रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं कि यदि आत्मा में अभय है तो अकेले चलें। कारवां बनता जाएगा। मुझे देखो किसने मेरा विरोध नहीं किया? सभी मुद्दों पर कोई मुझसे अमूमन सहमत नहीं होता था। मुझसे वरिष्ठ लोकमान्य तिलक असहमत थे। मेरे गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने मेरी किताब ‘हिन्द स्वराज‘ को रद्द करते हुए कहा था इसे कूड़ेदान पर फेंक दो। मेरे शिष्य और घोषित उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरू ने भी कई मुद्दों पर मेरा साथ छोड़ दिया था। भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे महान क्रांतिकारियों ने मेरी अहिंसा के सामाजिक तथ्य के हथियार को खारिज ही तो किया था। मैंने डा0 भीमराव अंबेडकर को भारत का संविधान बनाने की जिम्मेदारी देने के लिए पटेल और नेहरू को राजी किया लेकिन अंबेडकर ने भी मेरी जितनी मुखालफत की कि वह इतिहास में दर्ज है। खुद वल्लभभाई ने कई मौकों पर मुझसे असहमति का इजहार तो किया। सुभाषचंद्र बोस से अंततः मेरी असहमति आज़ादी के पहले के इतिहास में सबसे चर्चित परिच्छेद है। कई वरिष्ठ नेताओं मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय आदि से भी नहीं पटी और उन्होंने स्वराज दल का गठन किया। हिन्दुत्व के सबसे पुराने पैरोकार डाॅ. मुंजे और बाद में आर. एस. एस. के संस्थापक बने डाॅ. हेडगेवार दोनों कांग्रेस में थे। उन्हें मोटे तौर पर मुझसे परहेज़ था। कांग्रेस छोड़कर उन्होंने एक दक्षिणपंथी संगठन बनाया।
मैं सावरकर से मिलने 1909 में इंग्लैंड गया था। उन्हें समझाया कि हिंसा के जरिए भारत की आज़ादी का ख्याल छोड़ दें। वहां अंगरेज़ हुक्काम को भी समझाया। उन दोनों ने मुझे खारिज किया तब निराश मन से मैंने अपनी पहली कृति ‘हिन्द स्वराज‘ पानी के जहाज पर लिखी। उसकी इबारत पर मैं पूरे जीवन भर कायम रहा। साबरमती आश्रम में कुष्ठ रोगियों की सेवा से इंकार करने पर मैंने अपनी माता समान बड़ी अपनी बहन और पत्नी कस्तूरबा को भी जाने को कह दिया। मेरे बड़े बेटे ने तो घर परिवार और हिन्दू धर्म ही छोड़ दिया क्योंकि उसे मुझसे सहमत होने में दिक्कत होने लगी थी। परस्पर प्रेम होने के बाद भी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर मुझसे कई बड़े मुद्दों पर पूरी तौर पर सहमत नहीं थे। ज़िन्ना की मेरे लिए नफरत तो पाकिस्तान बनाने पर भी कम नहीं हुई। बहुत लंबी फेहरिस्त है। मैंने तय किया था कि चाहे मैं नष्ट हो जाऊं लेकिन भारत की जनता, किसानों और गरीबों के प्रति अपने प्रेम और कर्तव्य और भारत के महान सिद्धांतों से हटूंगा नहीं। मैं पूरे जीवन ऐसी राह पर चलने की कोशिश करता रहा। उसका अंत एक संकीर्ण विचारधारा के हथियार बनकर नाथूराम गोडसे ने मेरी छाती को गोलियों से बींध दिया। मेरे लिए भारत, धर्म और उसके प्रतीक के रूप में राम बहुत प्रिय रहे हैं। वही ‘हे राम‘ मेरा अंतिम शब्द बना।
आज भी मैं किसानों के साथ खड़ा हूं। उन्हें इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि बहुमत प्राप्त सरकार, काॅरपोरेट द्वारा गुलाम बना दिया गया मीडिया, दहशतगर्दी, घबराहट और कायरता फैलाने की पुलिसिया ताकतों का किसानों के खिलाफ उपयोग होगा। मैं अपनी पूरी शिद्दत के साथ आत्मामय बनकर किसानों के साथ खड़ा हूं। मैं उनके परिश्रम के पसीने की हर बूंद में रहूंगा। यदि लक्ष्य हासिल करना है तो उन्हें इस सरकार के प्रति नफरत, हिंसा और असभ्यता का आचरण करने का आरोप न लग सके-ऐसी सावधानी बरतनी होगी। उनका आंदालेन शांतिपूर्वक चल रहा है।
मुझे मालूम है अंगरेज़ भी कांग्रेस के आंदोलन में इसी तरह अपने गुर्गे छोड़कर शांति फैलाते थे। गोलियां मारकर किसानों को मौत की नींद सुला देने का इतिहास मुझे मालूम है। कुछ लोग जो मुझे पढ़ते नहीं हैं, व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के छात्र बना दिए गए हैं। वे अफवाहों को इतिहास समझते हैं। वे मुझसे नफरत करते हैं। आसानी से कह देते हैं कि किसान हिंसक हो गए हैं। अपने अधिकारों की लड़ाई को उग्र होकर लड़ने का तो 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन भी रहा है। उसमें कई अंगरेज़ों की मौतें भी हुई हैं। फिर भी उसे खुद अंगरेज इतिहासकार हिंसा का आंदोलन नहीं बताते। अब भारत के गालबजाऊ बुद्धिजीवियों को यह कहने में सरकारों की खुशामद करने का सुख क्यों लेना चाहिए कि किसान आंदोलन बहक गया है। हिंसक हो गया है।
हां यह जरूर है कि किसान भाइयों को चाहे जो कुछ हो जाए लाठियां नहीं भांजनी चाहिए थीं। उससे गलतफहमी पैदा होती है। यही तो सरकार चाहती है। हर किसान के मन में अपने अधिकार के लिए मशाल जलती रहे लेकिन उसे किसी भी कीमत पर सरकार और अपने विरोधियों के लिए हिंसा की भावना नहीं लाना चाहिए।
मुझे कोई शुरू में बताने नहीं गया था लेकिन मैं तो भारत के किसानों की आत्मा में सदैव हूं। मैं उनके हर इरादे में, संघर्ष में, जय पराजय में, आंसुओं में, फसल में, परिवार में जीवित रहूंगा। आज के दिन मुझे मार दिया गया था। वह तो मेरा शरीर था। मनष्ुय की आत्मा कभी नहीं मरती। मैं भारत के किसानों के बीच ही रह सकता हूं। हर निजाम को मैं जनता पर अत्याचार करने का हथियार ही तो कहता रहा था।
(गाँधीवादी विचारक लेखक, छत्तीसगढ़ के पूर्व महाधिवक्ता  कनक तिवारी  का फेसबुक पोस्ट) 

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