एनपीए ’राइट ऑफ’ करने के खेल के पीछे की मंशा ठीक मगर निर्णय नहीं ?

भारतीय बैंकों ने पिछले पांच वर्षों में ही 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक के एनपीए ’राइट ऑफ’ कर दिए हैं। राइट ऑफ करने का मतलब है, इस राशि को बट्टा खाते में डाल देना यानि बैंकों की एनपीए से हटा देना।

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देश के बैंकों ने पिछले पांच वित्तीय वर्षों के दौरान 10,09,511 करोड़ रुपये के खराब ऋण यानी एनपीए को राइट ऑफ कर दिया है। वित्त मंत्रालय की ओर से संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां यानि एनपीए खातों के संबंध में यह कदम चार साल पूरे होने के बाद उठाया गया है।

डॉ. लखन चौधरी

भारतीय बैंकों ने पिछले पांच वर्षों में ही 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक के एनपीए ’राइट ऑफ’ कर दिए हैं। राइट ऑफ करने का मतलब है, इस राशि को बट्टा खाते में डाल देना यानि बैंकों की एनपीए से हटा देना। इधर सरकार तर्क दे रही है कि इस राशि को एनपीए से हटा देने के बावजूद कर्ज लेने वाले या कर्ज लेने वालों को कोई लाभ नहीं होता है। बैंक उपलब्ध विभिन्न वसूली तंत्रों के माध्यम से राइट ऑफ की गई राशि की वसूली जारी रखते हैं। यदि सरकार के इस दावे पर यकीन किया जाये तो सवाल उठता है कि यदि सरकार की नियत इतनी साफ है तो फिर तत्काल कुर्की के माध्यम से वसूली जैसे कदम क्यों नहीं उठाया जाता है ?

देश के बैंकों ने पिछले पांच वित्तीय वर्षों के दौरान 10,09,511 करोड़ रुपये के खराब ऋण यानी एनपीए को राइट ऑफ कर दिया है। वित्त मंत्रालय की ओर से संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां यानि एनपीए खातों के संबंध में यह कदम चार साल पूरे होने के बाद उठाया गया है। राइट-ऑफ के बाद उक्त राशि को संबंधित बैंक की बैलेंस शीट से हटा दिया गया है। सरकार ने कहा कि बैलेंस शीट को साफ करने, कर लाभ प्राप्त करने और आरबीआई के दिशानिर्देशों और उनके बोर्ड की ओर से अनुमोदित नीति के अनुसार पूंजी का अनुकूलन करने हेतु यह कदम उठाया गया है।

भारतीय रिज़र्व बैंक यानि आरबीआई द्वारा अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी) से प्राप्त इनपुट के आधार पर पिछले पांच वित्तीय वर्षों के दौरान 10,09,511 करोड़ रुपये की राशि को राइट ऑफ किया गया है। सरकार ने स्पष्ट कहा है कि राइट ऑफ किए गए ऋण के कर्जदार पुनर्भुगतान के लिए उत्तरदायी बने रहेंगे और कर्जदार से बकाये की वसूली की प्रक्रिया जारी रहेगी। लेकिन सवाल उठता है कि जब वर्तमान में सरकार जैसी ताकतवर संस्था या संगठन इन कर्जदारों से कर्ज की वसूली करने में अक्षम साबित हो रही है ? तो फिर बाद में इन रकमों की वसूली कैसे होगी ? यह एक बड़ा सवाल है। इन बड़े बाकायादारों के खिलाफ सरकार कुर्की जैसी बड़ी कार्रवाई कयों नहीं करती है ? यह सवाल भी परेशान करता है।

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सरकार का तर्क है कि राइट ऑफ करने या बट्टा खाते में डालने से कर्ज लेने वाले को लाभ नहीं होता है। बैंक उपलब्ध विभिन्न वसूली तंत्रों के माध्यम से राइट ऑफ की गई राशि की वसूली जारी रखते हैं। राइट ऑफ के तहत दीवानी अदालतों या ऋण वसूली न्यायाधिकरणों में मुकदमा दायर करना, दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 के तहत मामले दर्ज करना और नन परफॉर्मिंग असेट्स की बिक्री जैसे कदम उठाए जाते हैं। लेकिन वही सवाल खड़ा होता है कि कब ? हकीकत यह है कि इसके पूर्व में बड़ी राशियां राइट ऑफ की जा चुकीं हैं। सरकार के अनुसार आरबीआई ने 2021-22 के अंतिम वित्तीय वर्ष में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की ओर से 1,74,966 करोड़ रुपये के ऋण राइट ऑफ किए गए थे। जबकि पिछले वित्तीय वर्ष में राइट ऑफ किए गए ऋणों में से केवल 33,534 करोड़ रुपये की ही वसूली कर पाई है।

फिर सरकार के इन दावों पर यकीन कैसे किया जाये कि भविष्य में इन रकमों की वसूली की जायेगी ? सवाल यह भी है कि जनता के पैसे को सरकार इसी तरह राइट ऑफ करती रही तो देश में डिफॉल्टरों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही रहेगी। ईमानदार लोगों के टैक्स के पैसे की इसी तरह बर्बादी होती रहेगी। बेईमान लोग इसी तरह भयमुक्त होकर बैंकों के पैसों को डकारते रहेंगे, और सरकार एनपीए को इसी तरह राइट ऑफ करती रहेगी। निष्कर्ष यह है एनपीए ’राइट ऑफ’ करने के खेल के पीछे की सरकार की मंशा भले ही ठीक है, मगर सरकार का यह निर्णय ठीक नहीं है।

(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)

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