भगवान विष्णु एवं देवी माता लक्ष्मी के पुत्र नहीं हैं , जानें इसका सात्विक अर्थ  

शास्त्रों एंव पुराणों में सभी ईश्वर तथा देवताओं के पुत्रों का वर्णन है यथा, महाकाल महादेव जी के पुत्र कार्तिकेय एवं गणेश, ब्रम्हाजी के पुत्र नारद, प्रजापतिगण जाम्बवंत, सूर्य पुत्र शनि, कर्ण, सुग्रीव, देवराज इन्द्र, अर्जुन, बाली किन्तु सर्वकर्ता विष्णु जी एवं श्री एवं धन की देवी माता लक्ष्मी के पुत्र नहीं है।

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शास्त्रों एंव पुराणों में सभी ईश्वर तथा देवताओं के पुत्रों का वर्णन है यथा, महाकाल महादेव जी के पुत्र कार्तिकेय एवं गणेश, ब्रम्हाजी के पुत्र नारद, प्रजापतिगण जाम्बवंत, सूर्य पुत्र शनि, कर्ण, सुग्रीव, देवराज इन्द्र, अर्जुन, बाली किन्तु सर्वकर्ता विष्णु जी एवं श्री एवं धन की देवी माता लक्ष्मी के पुत्र नहीं है।

मत्सर
सामान्यतया मत्सर का अर्थ ईर्ष्या माना जाता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह की तरह ही इसे एक मानसिक विकार माना गया है तथा तमोगुण में इनका स्थान सर्वाधिक निम्न है। मनोविज्ञान में तो इसे एक आम मानसिक विकृति माना गया है। जिसका प्रभाव सब पर न्यूनाधिक रहता है। यह व्यक्ति के मानस को लगातार उद्वेलित करता है तथा उसमें हीन भावना तथा कुंठा को पल्लवित करता है।

ऐसा नही है कि सामर्थ्य एवं सम्पन्नता मत्सर को रोकते है या अपने को प्रभावित नही होने देते, विपरीत इसके ऐसे व्यक्ति भी इसके पाश में बंधे रहते है जो भौतिक सुख सुविधा से परिपूर्ण तथा अभाव से मुक्त होते है। कुछ विद्वानों का मत है कि भौतिक जीवन में क्रियाशीलता तथा आगे बढने में मत्सर एक विकार नहीं सहज व सामान्य जिसे नैसर्गिक कहा जा सकता है, एक गुण है क्योंकि इसमें प्राप्ति की कामना होती है।

लेखक जैनेन्द्र कुमार का कथन है “ईर्ष्या अपनी हीनता के बोध में से जन्म लेती है और वह उस हीनता को दूर नही करती सिर्फ दबाती है” इस कथन की यदि व्याख्या की जाये तो स्पष्ट होता है कि मत्सर अथवा ईर्ष्या का मूल कारक हीनता का बोध है। हीनता में अभाव की प्रधानता होती है। अत: अभाव की पूर्ति मत्सर की ओर प्रेरित करती है किन्तु व्यक्ति के चेतन में जो वैचारिक पवित्रता की धारा होती है उसे यह अवरूद्ध करती है।

महाभारत के कारणों में दुर्योधन की पाण्डवों के प्रति ईर्ष्या भावना को प्रथम कारण माना गया है वही शेष कारणों यथा लोभ, क्रोध, मोह, अंहकार तथा महत्वकांक्षा में भी मत्सरता की पैठ को नकारा नहीं जा सकता । पाण्डवों ने तो मात्र पांच गांव की मांग की थी ताकि पारिवारिक विवाद महायुद्ध का रूप लेकर मृत्यु का तांडव न बन सके किन्तु दुर्योधन तो सूई की नोंक बराबर भूमि देने को प्रस्तुत नहीं हुआ।

युधिष्ठिर ने युग पुरूष वासुदेव कृष्ण को शांतिदूत बनाकर भेजा। श्रीकृष्ण ने सभी प्रकार से प्रयास किया कि दुर्योधन शांति का मार्ग चुने किन्तु दुर्योधन ने तो श्रीकृष्ण को ही बंदी बनाने का घृणित प्रयास किया। क्रोध करते भगवान श्रीकृष्ण ने विराट स्वरूप धारण कर सबको चमकृत कर दिया । पितामाह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा विदुर सहित सभी ने श्री कृष्ण के ईश्वरीय अंश को प्रणाम कर सर झुकाया किन्तु दुर्योधन ने इसे श्रीकृष्ण का मायावी रूप ही माना।

स्पष्ट प्रमाणित होता है कि ईर्ष्या की अधिकता बुद्धि को भ्रष्ट तथा विवेक को नष्ट कर देती है। अन्तस का मत्सर मानस को अंधकार युक्त कर देता है तथा वह ईश्वर को ही माया समझने लगता है। हित अहित, उचित-अनुचित के मध्य भेद करने की क्षमता से वह वंचित होकर आत्म धाती निर्णय पर ही अडिग रहता है। धर्म, कर्म, चिंतन तथा कल्याण जैसे शब्द उसके लिये अपनी महत्ता खो देते है।

श्रीकृष्ण एवं अर्जुन को नर और नारायण माना गया है किन्तु अर्जुन भी मत्सर के विकार से रहित नहीं था। सामान्य भील युवक एकलव्य को  राज्याश्रय प्राप्त हस्तिनापुर स्थित शिक्षा केन्द्र में द्रोणचार्य द्वारा शिष्यत्व प्रदान नहीं किया गया। एकलव्य का संकल्प दृढ़ था। निराश होकर उसने अथक साधना, त्याग, भक्ति एंव परिश्रम से धर्नुविद्या में पारंगतता प्राप्त कर ली और अवसर आने पर उसने सभी पाण्डवों को पराजित भी कर दिया। अर्जुन एकलव्य के सामने विवश था।

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अंहकार और मत्सर का संबंध तो जीव और आत्मा की तरह होता है। अतः अर्जुन एकलव्य को लेकर ईर्ष्या की हीन भावना से ग्रसित था। उसने पांचाल राज्य के राजा द्रुपद को पराजित कर गुरू द्रोण को प्रसन्न कर लिया तथा उन्हें विवश किया कि वे एकलव्य से गुरूदक्षिणा के रूप में उसके दांये हाथ का अंगूठा मांग ले।

इस प्रकार यह भी प्रमाणित होता है कि ईर्ष्या वास्तव में निकृष्ठ मानसिक विकार है जिसमे मानव मूल्यों के लिये कोई स्थान नही है। स्वार्थ तथा कटू रचना की वृति ईर्ष्या को पतन की पराकाष्ठा की ओर प्रेरित करती है। मनुष्यता को वह पशुता में बदल देती है। तथा ऐसी घिनौनी मानसिकता के अधीन होकर वह में सब करने को बाध्य हो जाता है। जिससे पशुता भी अपमानित अनुभव करे।

मत्सर ईर्ष्या से कहीं भयानक मानसिक विकार है।  ईर्ष्या मत्सर की प्रारंभिक स्थिति है।  ईर्ष्या यदि ईर्ष्या तक सीमित है तो वह तकलीफ देह नहीं है। किन्तु ईर्ष्या की विकृति कैंसर के गांठ की तरह मरणान्तक पीड़ा पहुंचाती है। अतः ईर्ष्या मत्सर का रूप न ले सके इसके लिये आवश्यक है कि व्यक्ति की मानसिक इच्छा शक्ति तो दृढ़ हो साथ ही अन्तस में भी व्यापकता के साथ पवित्रता हो।

व्यक्ति ईर्ष्या के चलते, आत्माभिमान खोकर निम्न श्रेणी के कार्य के संपादन के लिये भी तत्पर रहता है। आत्म संघर्ष उसे पल पल आत्म शांति से दूर खींचती जाती है। कुंठा उसे संवेदन हीन होने को विवश करता है। अतः उसकी अन्तर्रात्मा दूषित विकारों से ग्रस्त होकर व्यक्ति को पतित करता है। चूंकि मन में भावना मलीन होती है। अतः उसमें नैतिक साहस का अभाव रहता है।

नैतिक साहस का अभाव उसके चेतन व अवचेतन में भय उत्पन्न करता है किन्तु स्थिति इतनी बदतर होती है कि वह स्वयम भय के कारण को समझ नहीं पाता है। भय उसमें उन्माद तथा हिंसा की भावना भरता है जिससे परिणाम के प्रति वह स्वयम संशकित होकर आतंकित रहता है। यह आतंक उसके ही वजूद को कष्टों से भर कर नष्ट कर देता है |

शास्त्रों एंव पुराणों में सभी ईश्वर तथा देवताओं के पुत्रों का वर्णन है यथा, महाकाल महादेव जी के पुत्र कार्तिकेय एवं गणेश, ब्रम्हाजी के पुत्र नारद, प्रजापतिगण जाम्बवंत, सूर्य पुत्र शनि, कर्ण, सुग्रीव, देवराज इन्द्र, अर्जुन, बाली किन्तु सर्वकर्ता विष्णु जी एवं श्री एवं धन की देवी माता लक्ष्मी के पुत्र नहीं है। इसका सात्विक अर्थ यही है कि माता के लक्ष्मी के लिये संसार के समस्त नर नारी उनकी संतान है और माता अपनी संतानों के प्रति कभी अन्याय नहीं करती। माता संतानों में कभी भेदभाव नही करती। यह धारणा व्यक्ति के मानसिक सोच को विकृत होने से बचा सकती है।

सभी मानसिक विकारों में मत्सर ही सर्वाधिक तुच्छ तथा हीन विकार है। जिससे द्वन्द और बैर की भावना व्यक्ति के मन में व्यक्ति के लिये होती है। अतः कोई भी माता नहीं चाहती कि उनकी संतानों के मध्य द्वन्द व बैर की भावना हो। अतः व्यक्ति को इस सात्विक भाव को लेकर आगे बढ़ना चाहिये कि सुख एवं शांति के लिये भौतिक उपलब्धियां की नही मानसिक शांति की आवश्यकता है तथा प्राप्ति कामना सिर्फ मोक्ष के लिये किया जाना चाहिये जिसके मार्ग में मत्सर एक विध्वंसक अवरोधक मानसिक विकार है।

 

छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे  में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिवशंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा  निबंध  लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं। ‘विकार-विमर्श” निबंध संकलन 44 स्वाधीन चिंतन परक, उदान्त एवं स्थायीभावों का सरस सजीव गद्यात्मक प्रकाशन है। प्रौढ़ चिंतन, सूक्ष्म विश्लेषण एवं तर्कपूर्ण सुसम्बद्ध विवेचन एवं मनोविकारों का स्वरूप निर्धारण उनका रुपान्तरण आवश्यकता आदि पर पटनायक जी का चिंतन दर्शनीय है| deshdigital  इन निबंधों का अंश  उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |

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