काम- 2: मैथुन और संभोग  

मैथुन काम का विकृत रूप है किन्तु संभोग नहीं क्योंकि संभोग में सम अर्थात समानता का भाव है। पति-पत्नी के मध्य सम्भोग होता है मैथुन नहीं। मैथुन तो पशु करते हैं और पशुता ही काम विकृति है।  

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कामासक्त व्यक्ति व विवेक हीन व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता। अतः काम के इस विभत्स स्वरूप के प्रचण्ड वेग को प्रबल संयम, नियम व आचरण द्वारा पराजित करो। मेरा अर्थ यह नहीं है कि मैथुन या संभोग का त्याग कर दो किन्तु मैथुन व संभोग में अंतर समझो। मैथुन काम का विकृत रूप है किन्तु संभोग नहीं क्योंकि संभोग में सम अर्थात समानता का भाव है। पति-पत्नी के मध्य सम्भोग होता है मैथुन नहीं। मैथुन तो पशु करते हैं और पशुता ही काम विकृति है।

संभवतया काम का यह स्वरूप ही सर्वाधिक चर्चित एवम सर्वव्यापी है। पहले ही कहा जा चुका है कि श्रीमदभागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है ” रजोगुण की विशेषता है स्त्री तथा पुरुष का परस्पर आकर्षण जब इस रजोगुण में वृद्धि हो जाती है तो मनुष्य भौतिक भोग के लिये लालायित हो जाता है।

इसमें भौतिक भोग का अर्थ वृहत है किन्तु अधिकांश इसे स्त्री एवं पुरूष के मध्य आसक्ति जन्य भोग से लेते है। यह सत्य है कि पृथ्वी की निरन्तरता के लिये काम आवश्यक एवं अनिवार्य है।

काम तो ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक अनिवार्य भाव है क्योंकि इस भाव मात्र से ही नर, नारी की ओर नारी नर की ओर आकर्षित होकर संसार की निरन्तरता में अपना योगदान देते है। इसलिये भगवान में भग का अर्थ है नारी के तथा वान का अर्थ नर के जननांग से है। दोनों के मिलन से ही जनन की क्रिया सम्पन्न होती है।

सृष्टि की निरन्तरता के लिये केवल नर या नारी कुछ भी मायने नहीं रखते, दोनों का मिलन अनिवार्य है। इस मिलन को नर नारी के मध्य मैथुन, सहवास, संभोग या रति कर्म कहा जाता है। यह एक शाश्वत क्रिया है किन्तु आज यह इतना विकृत स्वरूप में सर्वग्राह्य हो गया है कि सामाजिक व मानवीय मूल्य ही कंलकित होने लगा है। अतः काम के इस अर्थ को पूर्ण गंभीरता से समझना, जानना एवं क्रिया रूप में परिणित करना आवश्यक है।

काम एक अनिवार्य मानसिक भाव है। अर्थात नर और नारी के मध्य का आकर्षण अत्यन्त सामान्य है। संभवतया इसीलिये नर और नारी के शारीरिक एवम मानसिक संरचना प्रकृति ने इसी उद्देश्य से एक दूसरे के पूरक के रूप में किया है। काम का भाव तो जन्म के साथ आता है। तथा उसका क्रमिक विकास होता रहता है।

विवाह की प्रथा भी तो इसी उद्देश्य से प्रेरित हैं। विवाह, नर एवं नारी के मध्य मिलन (शारीरिक) के लिये सामाजिक मान्यता प्राप्त एक व्यवस्था है ताकि वे संतान की उत्पत्ति कर संसार की निरन्तरता को बनाये रख सकें।

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शिवलिंग की पूजा पूरी श्रद्धा एवं विश्वास से नर, नारी करते है तब किसी के मन में तनिक भी विकार नहीं रहता जबकि लिंग शिव जनन अंग का तथा वह जिस पर स्थित है योनि, अर्थात माता शक्ति भवानी के जनन अंग का प्रतीक है। यही योनि तो भग तथा लिंग ‘वान’ है तभी भगवान की पूर्णता होती है।

यह इस बात का भी अर्थ है कि जीवन की सार्थकता के लिये लिंग एवम योनि की पूजा वासना एवं विकार रहित मन से किया जाना चाहिये । सभी भगवान एवं भगवती की तो पूजा करते है किन्तु काम के वास्तविक स्वरूप को विस्तृत कर भग को भोग मानकर मानसिक अपराध तो करते हैं। साथ ही अपने जीवन को विष-मय बना लेते है।

यही मानसिक विकार नारी जो भगवती है को भोग्या मानने को पुरूष को विवश कर देता है जिससे नाना प्रकार के उत्पात, कलह, युद्ध, हिंसा तथा अपराध का जन्म होने लगता है और व्यक्ति नारकीय यंत्रणाओं से युक्त जीवन जीने को बाध्य होता है ।

ऐसे कामी अर्थात काम विकार से ग्रस्त व्यक्ति निर्लजता से तर्क करते कहते है “भोग कदापि पाप कर्म नहीं है। यदि ऐसा होता तो प्राचीन मंदिरों की बाह्य दिवारों में मैथून रत मूर्तियों को क्यों उकेरा जाता। यहाँ तक पशुओं को भी संभोगरत क्यों बनाया जाता. “। यहीं तो अज्ञानता का मूल कारण है। यही तो कामधंधता है और यही मानसिक काम विकार है। विकृत काम का यही यथार्थ हैं।

कामासक्त व्यक्ति व विवेक हीन व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता। अतः काम के इस विभत्स स्वरूप के प्रचण्ड वेग को प्रबल संयम, नियम व आचरण द्वारा पराजित करो। मेरा अर्थ यह नहीं है कि मैथुन या संभोग का त्याग कर दो किन्तु मैथुन व संभोग में अंतर समझो। मैथुन काम का विकृत रूप है किन्तु संभोग नहीं क्योंकि संभोग में सम अर्थात समानता का भाव है। पति-पत्नी के मध्य सम्भोग होता है मैथुन नहीं। मैथुन तो पशु करते हैं और पशुता ही काम विकृति है।

( लेखक शिवशंकर पटनायक के निबंध संग्रह विकार विमर्श का एक अंश )

छत्तीसगढ़ के पिथौरा जैसे कस्बे  में पले-बढ़े ,रह रहे लेखक शिवशंकर पटनायक मूलतःउड़ियाभासी होते हुए भी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा कर रहे हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा  निबंध  लेखन में आपने कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके कथा साहित्य पर अनेक अनुसंधान हो चुके हैं तथा अनेक अध्येता अनुसंधानरत हैं।
‘विकार-विमर्श” निबंध संकलन 44 स्वाधीन चिंतन परक, उदान्त एवं स्थायीभावों का सरस सजीव गद्यात्मक प्रकाशन है। प्रौढ़ चिंतन, सूक्ष्म विश्लेषण एवं तर्कपूर्ण सुसम्बद्ध विवेचन एवं मनोविकारों का स्वरूप निर्धारण उनका रुपान्तरण आवश्यकता आदि पर पटनायक जी का चिंतन दर्शनीय है| deshdigital  इन निबंधों का अंश  उनकी अनुमति से प्रकाशित कर रहा है |

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